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________________ २६८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आक्षेपकार भी युक्तिपूर्ण वाद करनेकी टेवको रखनेवाला नहीं है। भावार्थ-जैनसिद्धान्त कोई बच्चोंका खेल नहीं है, जो कि चाहे जब बिगाड लिया जाय और बना लिया जाय । जैनसिद्धान्तकी भित्ति द्रव्यके वस्तुभूत परिणामोंपर अवलम्बित है । जैसे जलका दृष्टान्त देकर अग्निमें अनुष्णत्व सिद्ध करनेवाला द्रव्यत्व हेतु अथवा अग्निका दृष्टान्त देकर जलमें भी उष्ण स्पर्शको साधनेवाला द्रव्यत्व हेतु, व्यभिचार, बाध, सत्प्रतिपक्ष दोषोंसे परिपूर्ण है । उसी प्रकार शरीरसहितपन या इन्द्रियधारीपन हेतु भी व्यभिचार आदि हेत्वाभास दोषोंसे दूषित है। अतः अविनाभावस्वरूप प्राणको धारनेवाले जीवित हेतुओंसे नियत सायोकी सिद्धिको चाहनेवाले विद्वानोंको अविनाभावविकल मृतहेतुओंसे ( हेत्वाभासोंसे ) अन्ट सन्ट साध्यको साधनेके लिये कुत्सित प्रयत्न नहीं करना चाहिये । अन्यथा घृणापात्र बननेके अतिरिक्त उन्हें बाध, अनिष्टप्रसंग, अपसिद्धान्त, अप्रमाणिकपन, आदि दोषोंको भी झेलना पडेगा । इसी बातका श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम दो वार्तिकों द्वारा प्रदर्शन कराते हैं । तदन्यतरदृष्टत्वाच्छरीरित्वादिहेतुभिः । सर्वेषामपवयं तनापपवर्त्यमितीरयन् ॥ ३॥ प्रबाध्यते प्रमाणेन स्वेष्टभेदाप्रसिद्धितः । सर्वज्ञानिविरोधाश्च मानमेयाव्यवस्थितेः॥४॥ उन अपवर्तनीय आयुवाले और अनपवर्तनीय आयुवाले कर्मभूमियां या देव, नारकी आदि जीव इन दोनोंमेंसे किसी एकमें इष्टसाध्यके साथ देखा जा चुका होनेसे शरीरधारीपन, इन्द्रियधारपिन, प्राणयुक्तपन, संसारीपन, आदि हेतुओं करके यदि सभी शरीरधारी जीवोंकी वह आयु -हास होने योग्य है अथवा नहीं हास होने योग्य है, इस प्रकार कथन कर रहा आक्षेपकार (पक्ष ) अच्छे प्रकार प्रमाणों करके बाधित हो जाता है (साध्य) अपने इष्ट भेदोंकी अप्रसिद्धि होजानेसे (प्रथम हेतु) और सर्वज्ञ, जगत्कर्तृत्व, आकाशव्यापकत्व आदि सिद्धान्तोंका विरोध प्राप्त होजानेसे ( द्वितीय हेतु ) तथा प्रमाणों द्वारा जानने योग्य प्रमेय पदार्थोकी अव्यवस्था प्राप्त होजानेसे ( तृतीय हेतु )। अर्थात्-पक्ष और विपक्षमें सामान्य रूपसे पाये जा रहे धर्म करके जो दूसरेके निर्दोष सिद्धान्तपर कुठाराघात करता है वह स्वयं प्रमाणोंसे बाधित होरहा संता अपने अभीष्ट भेद, प्रभेदोंको नहीं साध सकता है । वह सर्वज्ञ आदिको भी नहीं मान सकेगा। उसकी मानी हुई प्रमाणप्रमेयव्यवस्था सब लुप्त होजायगी । मनुष्यत्व हेतुसे दरिद्रका धनिकपना, या मूर्खका पण्डितपना, व्यभिचारीका ब्रह्मचारीपन, साधुका गृहस्थपन, वादीका प्रतिवादीपन, अपसिद्धांतीका सिद्धांतीपन, पराजितका जेतापन, स्वामीका भृत्यपन, आदि भी सब सध जायंगे । भारी पोल मच जायगी । अतः अविनाभावसे विकल होरहे सामान्य हेतुओं करके विशेष साध्यकी सिद्धि करना स्वयं अपने लिये कुठाराघात है । बालक भी अपने लिये कांटे बखेरना नहीं चाहता है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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