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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २६७ ज्वर रोग चार दिनतक संक्लेश देता, वह कडबी कुटकी, चिरायतामिश्रित औषधिके पी लेनेपर एक ही दिनमें उपशान्त हो जाता है, यहां भी तो असद्वेद्य द्वारा पूर्ण कालतक विशिष्ट फल दिया जाना नहीं है । अतः पूर्व व्यवस्था अनुसार कर्मोंके विशिष्टफल देने का अभाव तो हमारे, तुम्हारे, दोनोंके यहां समान है । तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि किसी किसी जीवकी मध्यमें ही अपमृत्यु हो जाती है। (प्रतिज्ञा ) चिकित्सित, मंत्रप्रयोग, पुरुषार्थविशेष आदिकोंकी सफलता अन्यथा यानी अपमृत्युको स्वीकार किये विना नहीं बन पाती है ( हेतु )। एक बात यह भी है कि नियतकालका अतिक्रमण कर भी अपकर्षण, उत्कर्षण, अनुसार कर्मोके विपाक आगे, पीछे, हो जाते हैं। जैसे कि आम्रफल, पनस, नीबू , खरबूजा, आदि फल समयसे पूर्व ही भुस, रूई, आदिमें पका लिये जाते हैं । अर्थात्मुर्गी, या कबूतरकेि उदरमें विशेष उष्णताको पहुंचाकर नियत कालसे पहिले प्रसव करा लिया जाता है। उपयोगमें लाने या आतपमें अधिक रखनेसे वस्त्र शीघ्र जीर्ण हो जाता है । गीला कपडा फैला देनेसे शीघ्र सूख जाता है । थोडी उमरमें ही गृहस्थीका बोझ आपडनेपर समयसे पहिले बुद्धि परिपक्क हो जाती है। गम्भीरता आ जाती है। इसी प्रकार अपमृत्यु दशामें आयुःकर्मके निषेक शीघ्र झड जाते हैं । दस वर्षतक उदयमें आनेके लिये रची गयी आयुष्यकर्मकी पंक्तिको शीघ्र उदयमें लाकर भोगता हुआ जीव मध्यमें मर जाता है। अपमृत्युवाले जीवके भी आयुष्य कर्मकी भोग ( फल प्राप्ति ) भोग कर ही निवृत्ति हुई है। अनुपक्रम निर्जराके समान कर्मोकी उपक्रम निर्जरा भी होती है। कर्मोका फल यथा अवसरपर ही भुगवानेवाले जैसे कारण हैं उसी प्रकार भविष्यमें उदय आनेवाले कर्मको कारण द्वारा वर्तमानमें भी उदय प्राप्त किया जा सकता है। मूर्ख छोकरा युवा अवस्थाकी परिपक्कताके प्रथम ही मोहवश युवत्व भावोंको प्राप्त कर लेता है। वृद्धत्व और मृत्युको भी शीघ्र बुला लेता है। अतः निर्णीत हो जाता है कि देव, नारकी, और तीर्थकर महाराज तथा भोगभूमियां, कुभोगभूमियां, जीवोंके अतिरिक्त शेष संसारीजीवोंकी आयुका मध्यमें हास हो सकता है । यश्चाह, विवादापन्नाः पाणिनः सापवायुषः शरीरित्वादिद्रियवत्त्वाद्वा प्रसिद्धसापवायुष्कमाणिवत् ते वानपवायुषस्तत एवौपपादिकवदिति, सोपि न युक्तवादीत्युपदर्शयति । जो भी कोई आक्षेपकार यों अनुमान बना कर कह रहा है कि विवादमें प्राप्त हो रहे देव, नारकी, तीर्थकर और भोगभूमियां, प्राणी भी ( पक्ष ) हासको प्राप्त होने योग्य आयुसे सहित हैं ( साध्य ) शरीरधारी होनेसे ( प्रथम हेतु ) अथवा इन्द्रियवाले होनेसे ( द्वितीयहेतु ) अपवर्तसहित आयुवाले प्रसिद्ध कर्मभूमियां मनुष्य, तिर्यंच, प्राणियोंके समान ( अन्वयदृष्टान्त )। इस अनुमानसे देव आदि जीवोंकी आयुका ह्रास होना सध जाता है । अथवा जैनसिद्धान्तको बिगाड़नेके लिये दूसरा अनुमान यह भी किया जा सकता है कि वे कर्मभूमियां मनुष्य या एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, आदि जीव भी ( पक्ष ) अखण्डनीय आयुवाले हैं ( साध्य ) उस ही कारणसे अर्थात्-शरीरधारी होनेसे अथवा इन्द्रियवाले होनेसे ( हेतुद्वय ) देव, नारकी जीवोंके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । अब आचार्य कहते हैं कि वह
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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