________________
२६६
तत्त्वार्थ श्लोकवार्त
1
जलका परिणाम विष होजाता है, विशेष सीपमें प्राप्त हुये जलका बिंदु मोती बन जाता है । जिस तपस्या से सौधर्म इन्द्र लौकान्तिक देव, सर्वार्थसिद्धिके देव इन पदों की अथवा मुक्तिकी भी प्राप्ति हो सकती है, लोलुपी जीव निदान नामक पुरुषार्थ द्वारा छोटेसे फलको प्राप्त करनेमें ही परितृप्त होजाता है। यह कर्मोकी अवस्थाओंका परिवर्तन होना ही तो है । इसमें कृतप्रणाश क्या हुआ ? व्यायाम कर अन्नको शीघ्र पचा लिया या औषधि करके रोगसे शीघ्र छुट्टी पा ली इसमें कोई कृतप्रणाश दोष नहीं हैं । सातिशय पुण्यशाली जीव अल्पपुरुषार्थसे बहुत लाभ उठा लेता है, जब कि पुण्यहीन किसान घर परिश्रम द्वारा अत्यल्प आय कर पाता है । इसमें कृतप्रणाश कुछ भी नहीं है । जो नियम यों कर रहा है कि इस जीवको दस वर्ष तक दुःख या सुख भोगना है अथवा जीवित रहना है साथमें वही नियम यो भी कह रहा है कि यदि इसके प्रतिकूल कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, मिल जायंगे तो अल्प कालमें भी उन कर्मोंका भोग होकर निवारण कर दिया जायगा । केवली भगवान् भी तेरहवें गुणस्थानमें केवल समुद्घातस्वरूप स्वकीय पुरुषार्थं द्वारा तीन अघातिया कर्मोंकी स्थितीको अपने आयुष्य कर्मकी स्थिती के समान छोटी कर लेते हैं । इसमें कृतप्रणाश रत्ती भर भी नहीं है। लोकमें भी कारण वश सजायें घटा दी जाती हैं ।
कटुकादिभेषजोपयोगजपीडामात्रं स्वफलं दत्वैवासद्वेदस्य निवृत्तेर्न कृतप्रणाश इति चेत्, तर्ह्यायुषोपि जीवनमात्रं स्वफलं दत्त्वैव निवृत्तेः कृतप्रणाशो मा भूत् विशिष्टफलदानाभावस्तू - भयत्र समानः। ततोस्ति कस्यचिदपमृत्युश्चिकित्सितादीनां सफलत्वान्यथानुपपत्तेः कर्मणामयथाकालविपाकोपपत्तेश्चाम्रफलादिवत् ।
1
प्रतिवादी कहता है कि कडवी, कषैली, उष्ण, पीडाकारक, आदि नहीं रुचनेवाली औषधियोंके उपयोगसे उत्पन्न हुई वेदनामात्र ही अपने फलको देकर असद्वेदनीय कर्मकी निवृत्ति हो जाती है । अतः दुःखके उपराम करनेमें कृतकर्मका समूलचूल नाश नहीं हुआ । अर्थात् - कडवी औषधी (दवाई) पी लेने या हड्डी चढाते समय मर्दन ( मालिश ) का दुःख भुगतने अथवा श्लेष्ममें चारों ओरसे दुबक कर पसीना लेने एवं शस्त्रद्वारा चीर फाडकी वेदना सहने आदि फलों को देकर ही असद्वेदनीय कर्मकी निवृत्ति हुई है । फल दिये बिना कोई कर्म टलता नहीं है। अतः की जा चुकी करनीका प्रणाश नहीं हुआ, यों कहनेपर हम जैन भी कह देंगे कि तब तो अपवर्तनीय आयुवाले जीवोंके आयुः कर्म की भी स्वल्पजीवनमें ही अपना पूरा रस दे देना मात्र अपना फल देकर ही निवृत्ति हुई है । अतः कृतका प्रणाश मत होओ। यानी सेरभर खांड में मधुरता है तोले भर मिठाईका सार भी उतना ही मीठा है। भले ही सारसे डेड सेर तौलमें लड्डू नहीं बन सकें, किन्तु मिष्टजल ( सरबत ) उतना ही बन जायगा जितना एक सेर खांडसे मीठा पानी हो जाता है | यह फल क्या न्यून है ? । यदि तुम यों कहो कि अपमृत्यु मान लेनेपर आयुष्य कर्मका परिपूर्ण कालतक विशिष्ट फल देना तो नहीं हुआ, ऐसी दशामें हम जैन भी कह सकते हैं कि जो