SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः आदिक क्रियायें व्यर्थ नहीं हैं । कोई पक्षी या कीट, पतंग, यदि जलप्रवाहमें गिर पडे तो दयालु पुरुष उनको जलबाधासे उद्धार कर किनारेपर धर देता है, यह उनको अपमृत्युसे बचानेका ही उपाय है । यदि दयालु पुरुष उन जीवोंको नहीं निकालता तो उन जीवोंकी आयुःकर्मके निषेकोंका उत्कर्षण या उदीरणा होकर ह्रास होते हुये बीचमें ही मरण हो गया होता। जैसे कि असंख्याते जीव वर्तमानमें बचानेका निमित्त नहीं मिलनेसे मध्यमें ही अपमृत्युके पास हो रहे हैं । हत्यारी चिरैयायें उडती हुई हजारों लाखों मक्खियोंको खा जाती हैं, छपकलियां असंख्य कीटोंको निगल जाती हैं, उल्लू, चील, नीलकण्ठ आदि पक्षी, सिंह, व्याघ्र, भेडिया, बिल्ली, वीजू, आदि पशु तथा अनेक जलचर मांसभक्षी प्राणी ये सब हत्यारे जीव उन निर्बल खेलते, खाते, पीते, प्राणियोंकी अकालमें हत्या कर डालते हैं । प्लेग, हैजा, आदि रोगोंमें लाखों प्राणियोंकी अपमृत्युयें हो जाती हैं। बालवैद्य या योग्य औषधियोंके न मिलनेसे लाखों बच्चे मर जाते हैं । इस निकृष्ट पंचम कालमें तो बहुत थोडे जीवोंको परिपूर्ण आयु भोगकर मरनेका सौभाग्य प्राप्त होता होगा । अनेक जातिके रोग, चिन्तायें, वैधव्य, दरिद्रता, अनिष्ट बांधवोंकी संगति, टोटा, पराजय, अधमर्णता, कुग्रामवास, विधवाकन्याप्रयुक्त शोक अवस्था, आजीविकाकी क्षति, पराभव, आदि कारणोंसे बहुतसे जीव आयुको पूर्ण किये विना मध्यमें ही मृत्यु मुखमें पड़ जाते हैं । जलकायिक, अग्निकायिक, घास, फल, पुष्प, शाक, तरकारी, आदि बहुभाग एकेंद्रिय जीवोंकी आयु छिन्न कर दी जाती है । न ह्यमाप्तकालस्य मरणाभावः खड्गपहारादिभिर्मरणस्य दर्शनात् । प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शनमिति चेत्, कः पुनरसौ कालं प्राप्तोऽपमृत्युकालं वा; द्वितीयपक्षे सिद्धसाध्यता, प्रथमपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंगः सकलबहिःकारणविशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः। शस्त्रसंपातादिबहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्तेः। कोई आग्रही पण्डितम्मन्य यों समझ बैठा है कि जिस जीवका मृत्युकाल प्राप्त नहीं हुआ है, उसका कथमपि मरण नहीं होता है । विषप्रयोग या अग्निकाण्ड अथवा जलप्रवाहसे भी जीव रक्षित (वचना) हो जाते हैं। गोली लग जानेपर भी पुनः वीसों वर्षतक जीवित रहते हैं । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं समझ बैठना चाहिये। क्योंकि खड्गके प्रहार, तोप गोलेका लगना, तीव्र विषप्रयोग, प्रचण्ड अग्निदाह, अतिसंक्लेश, आदि घातक कारणोंसे जीवोंका मरण होना देखा जा रहा है । भले ही कचित् देवकृत या दैवकृत रक्षा हो जानेसे अथवा घातक कारणकी अल्पशक्ति होनेसे अपमृत्यु नहीं हो सके । एतावता अपमृत्युका निराकरण नहीं हो सकता है। एक पुण्यशाली मनुष्य थोडा अपराध बन जानेसे एक, दो, तीन, वार तोप द्वारा उडाये जानेपर भी मर नहीं सका । जयपुर निवासी अमरचन्द दीवान सिंहके पांजरेमें बाल बाल बच गये । घुना अन्न पीसनेवाली चाकीमें कोई एक दो कीट नहीं मरे, दो पाटोंके बीचमें होकर भी वे जीवित निकल आये, जैसे कि पीसती हुई चाकोंमेंसे कोई गेहूं
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy