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तचार्य लोकातिक
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बाहर निकल आता है । इतनेसे ही बन्दूक, तोप, द्वारा 'हजारों मेरे चुके या चाकी में लाखों पिस चुके जीवों की अपमृत्यु विधानका विघात नहीं हो सकता है । यदि वह आग्रही शंकाकार यों कह कि जिसको आप मध्यमें आयुक्ता हास कर अपमृत्युको प्राप्त हो जानेवाला जीब कहते हो उसे जीवकी भी तिस प्रकार पूर्ण आयुष्य काल प्राप्त हो चुकनेपर ही उस निमित्तसे मृत्यु हुई देखी जाती है । यों कहनेपर तो आचार्य विकल्प उठाकर उस आग्रहीको पूंछते हैं कि बताओ वह हृष्ट पुष्ट तगडा युवा बिचारा गोली वा विष के प्रयोगसे स्वल्यकालमें जो मरगया है या दुष्ट हिंसक मार्ग में दुलमतिसे जा रहे सांप को लाटियोंसे कुचल डाला है, छपकलीने मक्खीको ललि लिया है, क्या वे जीव फिर अपने पूर्ण मरणकालको प्राप्त हो चुके थे ? अथवा क्या मध्यमें ही उनका अपकृष्ट मृत्यु होनेका 'काल प्राप्त होगया है ? बताओ । दूसरा पक्ष ग्रहण करनेपर तो तुम्हारे ऊपर सिद्धसाध्यता दोष हैं। क्योंकि साधने योग्य उसी अपमृत्यु कालकी हम सिद्ध कर रहे हैं, उसीको तुम मान बैठे हो। ऐसी दशा में हमारा सुम्हारा कोई विवाद ही नहीं है। हां, पहिला पक्ष ग्रहण करनेपर तो उनकी मृत्युमें असिप्रहार, विषप्रयोग, घातकप्राणी द्वारा शरीरका विदारण किया जाना आदि कारणकी अपेक्षा नहीं रखने का प्रसंग होगा । किन्तु जाना गया है कि बलिष्ठ योद्धा, युवा, मक्खी, हिरण, आदि जीवोंको यदि खड्म प्रहार बुभुक्षित छपकली या व्याघ्रका अवसर प्राप्त नहीं होय तो वै दीर्घकालतक जीवित बने रहते हैं । हत्यारे मनुष्यको फांसी देकर मार दिया जाता है। यह उसकी अपमृत्यु नहीं तो क्या है ? हां, जो स्क्रेश, असिप्रहार आदि अपघातक कारणों के विना पूर्ण आसु भोग कर मरता है, वह अपमृत्युरहित होरहा मल्ल मृत्यु कालको प्राप्त हुआ कहा जाता है। क्योंकि सम्पूर्ण बहिरंग कारण माने गये अन्ननिरोध, फांसी, विष, आदि विशेषोंकी नहीं अपेक्षा रख रहे मृत्यु कारणको ही पूर्ण मृत्युका काल, व्यवस्थापित किया गया है । कतिपय मनुष्य बैठे बैठे या जाप्य करते हुये मर 1 जाते हैं। कोई वृक्ष यों ही सूख जाते हैं। चीटियां, मक्खियां भी बहुतसी घातक कारण विना यो ही मर जाती हैं | घास पककर सूख जाती है । यह जीवोंक्त मृत्युकाल माना गया है। हाँ, जिस मृत्युका शस्त्रघात, विद्युत्घात, जलोदर, कसाई द्वारा हता जामा, आदि बहिरंग कारणों के साथ अन्मय व्यतिरेक का विधान पाया जाता है, अर्थात्-शस्त्रसम्पात होनेपर मृत्युका होना और राखाघात यदि मही होता तो कथमपि मृत्यु नहीं होती, यह अन्वय व्यतिरेक होरहा है, उस मरणकालको अपमृत्युकालना शुक्त माना गया है।
तदभावे पुनरायुर्वेदप्रामाण्यचिकित्सितादीनां के सामर्थ्योपयोगः । दुःखप्रतीकारादाविति चेत्, तथैवापमृत्युप्रतीकारादौ तदुपयोगोस्तु तस्बोभयथा दर्शनात् ।
यदि रोग, विष, आदि द्वारा उस अपमृत्युकाल होनेको नहीं माना जायगा तो फिर आयुर्वेद या चिकित्साशास्त्रका प्रमाणपन अथवा चिकित्सा में नियुक्त होरहे सद्द्वैध, रोगप्रतीकारक मंत्र, तंत्र, आदिकों की