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________________ २६० तत्वार्थ लोकवार्तिके ( इलाज ) नहीं बन सकते हैं । अतः शुभ कहो या अशुभ कहो अनुकूल कहो या प्रतिकूल कहो आयुको मध्यमे नहीं छिन्न होने देनेवाले विलक्षण स्वकीय पुण्यपापकी सामर्थ्य द्वारा औपपादिक आदि जीवोंकी आयु परिपूर्णरूपसे भोगी जा रही है । विना कहे ही सूत्रोक्त शब्दोंकी सामर्थ्यसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि उन औपपादिक आदि जीवोंसे शेष बच रहे अन्य जीवोंकी विष, वेदना, आदि बहिरंग कारणोंसे आयु अपवर्तनको प्राप्त हो जाती है । अन्यथा रोगीकी चिकित्सा करना या जीवोंपर दया करना, अभयदान देना, आदिकोंकी निष्फलता बन बैठेगी, जो अर्थात् — अनेक जीवोंकी अपमृत्यु हो जाती है । पांवके नीचे दबकर कीट, मर जाते हैं । यदि नहीं दबते 1 नहीं मर पाते । देखिये, निर्धन या अज्ञानी रोगी योग्य चिकित्सा हुये विना मध्यमें ही कालकवलित हो जाते हैं । भयके मारे अनेक जीव तत्काल प्राणोंको छोड देते हैं, तभी तो उनकी चिकित्सा करना, दया करना, उनको निर्भय कर देना, आदि क्रियायें सफल समझी गयी हैं। अतः बहुभागमें जीवोंकी अपमृत्यु होना सम्भव रही हैं । कि इष्ट नहीं है पिपीलिका, आदिक I बाह्यप्रत्ययानपवर्तनीयमायुः कर्म प्राणिदयादिका रणविशेषोपार्जिते तादृशादृष्टं तस्य सामर्थ्यमुदयस्तस्य संगतिः संप्राप्तिस्ततो भवधारणमौपपादिकादीनामनपवर्त्यमिति सामर्थ्यादन्येषां संसारिणां तद्विपरीतादृष्टविशेषादपवर्त्य जीवनं विषादिभिः सिद्धं, चिकित्सितादीनामम्यथा निष्फळत्वप्रसंगात् । प्राणियों के ऊपर दया करना, नियतकालतक आग्रहपूर्वक क्लेश पहुंचाना, अनेक देशकाल के जीवोंको पूर्णरूपसे मोक्षमार्गमें लगाने की भावना रखना, अखण्ड प्रतिदिन दान देना, आदिक कारणविशेषोंसे देव, नारकी, तीर्थकर महाराज, भोगभूमियां, जीवोंने पूर्वजन्ममें एक तिस प्रकारका अदृष्ट उपार्जित किया है । जिससे कि इनका आयुः कर्म वर्तमान कालमें किसी विष आदि बाह्यकारणसे अपवर्त होने योग्य नहीं है । उस अदृष्टकी सामर्थ्य तो इस भवमें उसका समुचित उदय होना है। उस उदयकी संगति अर्थात् — भले प्रकार प्राप्ति कतिपय जीवोंको हो रही है । ति कारण देव, नारक, आदि जीवोंका संसारमें धरे रखनेवाला अथवा आत्माको इसी गृहीत शरीरमें ठूंसे 'रखनेवाला आयुष्यकर्म ह्रास होने योग्य नहीं है । यहांतक पहिली वार्त्तिक के उत्तरार्धका विवरण कर दिया है । दूसरी वार्त्तिकका तात्पर्य यह है कि विना कहे ही केवल सूत्रोक्त पदोंकी सामर्थ्य सिद्ध हो जाता है कि उस विलक्षण जातिवाले अदृष्टके विपरीत हो रहे दूसरे जातिवाले निर्बल अदृष्ट विशेषसे अन्य संसारी जीवोंका संसारमें जीवित रहना तो विषप्रयोग, शस्त्रघात, आदि कारणोंद्वारा ह्रास हो जाने योग्य है | अन्यथा चिकित्सा करना, दयाधर्मका उपदेश करना, दुष्काल पीडितों के लिये अन्न वस्त्र देना, अग्निकाण्ड, जलकाण्डसे प्राणियोंकी रक्षा करना, आदिके निष्फलपनेका प्रसंग होगा । जब कि वे बीचमें मरेंगे ही नहीं तो उक्त क्रियायें क्यों की जा रही हैं ? किन्तु चिकित्सा
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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