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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अनाद्यनन्त मिथ्यादृष्टि जीवोंकी कलुषताके कारणभूत अनन्तानुबन्धी और दर्शनमोहनीय प्रकृतियोंका भी उपशम हो जाना चाहिये । कोई भी किचडेला जल होय, फिटिकिरी आदिके निमित्तसे उसकी कीचड दब ही जाती है। हेतुदल रह गया और साध्य दल नहीं रहा अतः व्यभिचार हुआ, अब आचार्य समाधान करते हैं कि यह तो दोष नहीं उठाना । जिस कारणसे कि हमने किसी न किसी प्रतिपक्ष कारणसे उस कलुषताके हेतुका प्रशम होना साध्य कोटिमें रखा है, अनाद्यनन्त कालतक मिथ्यादर्शनको धारनेवाले जीवोंके उन भव्यत्व, अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, काललब्धि आदिक निमित्तों की प्राप्ति ही नहीं हो पाती है । अभव्य जीवमें भव्यत्व परिणाम, करणत्रय, नहीं हैं । दूर भव्यको निमित्तोंकी प्राप्तिका अवसर हाथ नहीं लग पाता है । जिन भव्योंका भी संसार अवस्थान काल अर्द्ध पुद्गल परिवर्तनसे अधिक अवशिष्ट है, उनको भी आजतक कलुषताके उपशामक निमित्तोंकी प्राप्ति नहीं हुई है । निमित्तप्राप्ति हो जानेपर कलुपताके कारणोंका उपशम हो जानेको हमने व्याप्तिके पेटमें डाला है । अतः हेतुके नहीं ठहरनेपर साध्यका भी नहीं ठहरना यहां घटित हो जाता है । अतः व्यभिचार दोष नहीं आता है । कितनी ही भूमि, पोखर, सरोवर, पर्वतकन्दराओं आदि अनेक स्थानों पर किचरैले जल भरे हुये हैं । निमित्तकारणों की प्राप्तिका अवसर नहीं मिलनेसे वे सपङ्क ही बने रहते हैं । अतः प्रतिकूल कारणोंकी प्राप्ति हो जानेपर कलुषताका उपशम हो जाना हम साध रहे हैं | अभव्य जीवके पास उन कलुषताके हेतु हो रहे कर्मोंके प्रशम करनेमें निमित्तभूत कोई कारण नहीं है । यदि अभव्यको भी उन कारणोंके सद्भावकी प्राप्ति मानी जायगी तब तो उसको भव्यपनेका प्रसंग हो जायगा । ऐसी दशामें वह अभव्य जीव तो प्रकृत व्याप्तिका त्रिपक्ष नहीं ठहर सकता है अर्थात् अभव्यरूप विपक्षमें साध्यके बिना हेतुके ठहर जानेसे व्यभिचार दोष उपस्थित किया गया था " त्रिपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः " यदि अभव्यके भी पांच या सात प्रकृतियों का उपशम होने लगे तब तो व्यभिचार स्थल माने गये अभव्यकी, विपक्षपना न होकर सपक्षता आ ही जाती है । अतः व्यभिचारदोष उठाना ही असंगत होजायगा ।
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स्वयं संविद्यमाना वा सम्यक्त्वादिप्रसन्नता । सिद्धात्र साधयत्येव तन्मोहस्योपशांतताम् ॥ ५ ॥
अथवा कर्मो उपशमको साधने का सरल उपाय यह है कि वह सम्यग्दर्शन स्वरूप या उपशमचारित्र रूप इस ढंगकी प्रसन्नता स्वयं हमारी आत्मा में स्वसम्वेदन प्रत्यक्षद्वारा जानी जारही सिद्ध है, वही प्रसन्नता यहां किसी विवक्षित अत्मामें उस मोहनीय कर्मके उपशम होजानेको अनुमानद्वारा सिद्ध कर ही देती है | भावार्थ - ज्वर, अजीर्णदोष या मलके दूर होजानेपर आत्मामें जो प्रसन्नता अनुभूत होती है उसीके अनुसार दूसरोंमें भी दोषों के उपशम होनेपर हुई प्रसन्नताका अनुमान कर लिया जाता है। वैसे ही तत्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन अथवा स्वात्मनिष्ठारूप चारित्रका प्रतिपक्षी