________________
तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक
कुतः पुनः प्रसन्नता तादृशी प्रसिद्धात्मन इति वैदिमे ब्रूमहे ।
श्री विद्यानन्द स्वामीके प्रति किसी पंडितका प्रश्न है कि पूर्व में कहे गये अनुमानका हेतु भला पक्षमें कैसे वर्तता है? बताओ । पक्षमें हेतुके बर्तनेसे वह हेतु असिद्ध हेत्वाभास हो जाता है। अतः यहां पृष्टव्य है कि आत्मामें उस प्रकार शान्तिपूर्वक – होनेवाली प्रसन्नता पुन: किस प्रमाण प्रसिद्ध कर ली गयी है ? जिससे कि हेतुकी सिद्धी होचुकी होय, इस प्रकारकी जिज्ञासा होने पर प्रतिवादिभयंकर हम ये विद्यानन्द स्वामी उसके समाधानको कहते हैं । अभिमानी दूसरे कुतर्कीका सकटाक्ष प्रश्न होनेपर विद्वान् वादी द्वारा उत्तर देते समय आत्मगौरवकी रक्षा करते हुये अपनी आत्माको पूज्य समझकर बहु वचनान्त इदं शद्वके साथ अस्मद् शद्वका सामानाधिकरण्य कर दिया जाता है तभी निरभिमान होता हुआ प्रतिवादी उत्तर सुननेके लिये सादर आभमुख होकर वादकिं गाम्भीर्य और अपनी तुच्छवृत्तिका अनुभव कर पाता है । अन्यथा नहीं । जैसे माता और पुत्रके बचन व्यवहार या दाता और अतिथिका वाकूप्रवृत्तिका अनुपम प्रेम या सभक्ति आदर के साथ नैमित्तिक सम्बध है, उसी प्रकार प्रवक्ता के सगौरव सारोप वक्तव्यका प्रतिपाद्यकी प्रबुद्धि होने के साथ अचिन्त्य कार्यकारणभाव नियत है । इसमें विनय, शिष्टाचार, नीचवृत्ति इन गुणोंकी क्षति होजाने की सम्भावना नहीं । हम क्या करें परिणामिपरिणाम सम्बध अटल है। I
/
१४
यो यत्कालुष्यहेतुः स्यात्स कुतश्चित् प्रशाम्यति । तत्र तोये यथा पंकः कतकादिनिमित्ततः ॥ २ ॥
जो पदार्थ जिस किसी पारणामके कलुषता यानी साकुलता ( गंदलापन) का हेतु होगा, वह किसी न किसी अनिर्वचनीय विरोधी कारणसे वहां उपशान्त ( दब ) होजाता है, जैसे कि कीच, घुले हुये उस मैले जलमें कतक फल, निर्मली, फिटकिरी, आदिक निमित्त कारणोंसे घुला हुआ कीचड भले प्रकार नीचे दबकर बैठ जाता है इस प्रकार अन्वयव्याप्तिपूर्वक हुये, अनुमानद्वारा सम्यक्त्व या चारित्र प्रतिपक्षी कर्मोकी निजशक्तिका व्यक्त न होना रूप उपशम साध दिया गया है
1
न चाभव्यादिकालुष्यहेतुना व्यभिचारिता । कुतश्चित्कारणात्तस्य प्रशमः साध्यते यथा ॥ ३ ॥ न च तत्प्रशमे किंचिदभव्यस्यास्ति कारणं । तद्भावे तस्य भव्यत्वप्रसंगादविपक्षता ॥ ४ ॥
अभव्य अथवा दूर.. भव्य इस
यहां कोई उक्त व्याप्तिमें व्यभिचार दोषको उठाता है कि प्रकारके सर्वदा मिथ्यादृष्टि बने रहनेवाले जीवोंकी कलुषताके कारणसे व्यभिचार हुआ । अर्थात्