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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः प्रकार मोहनीयकर्मके उदय होनेपर आत्मामें सम्यग्दर्शन और चारित्र नहीं हो पाते हैं । जलमें कीचके दबजाने समान उक्त कर्मोंका उपशम हो जानेपर देव, शास्त्र, गुरु श्रद्धान या तत्त्वार्थश्रद्धान अथवा स्वानुभूतिस्वरूप सम्यग्दर्शन हो रहा प्रतीत हो जाता है । तथा भोगोंमें उपेक्षा, स्वरूपाचरण, व्रतधारण और बहिरंग अन्तरंग सांसारिक क्रिया निरोधरूप चारित्र हो रहा अनुभूत हो जाता है । इस प्रकार प्रकृत साध्यके साथ प्रकृत हेतुकी व्यालिको अपनी आत्मामें निर्णीत कर विवादप्राप्त पुरुषमें साध्य को साध लिया जाता है। यथैव हि जले सपंके कुतश्चित्प्रसन्नता सा च साध्यमाना पंकस्योपशमे सति भवति नानुपशमे कालुप्यप्रतीते, नापि क्षये, शांतत्वविरोधात् । तथात्मनि सम्यक्त्वचारित्रलक्षणा प्रसन्नता सत्येव दर्शनचारित्रमोहस्योपशम भवति, नानुपशमे, मिथ्यात्वासंयमलक्षणकालुष्योपलब्धेः । न क्षये, तस्याः शांतत्वविरोधादिति युक्तं पश्यामः। कारण कि जिस ही प्रकार कीचसे सहित हो रहे जलमें किसी भी कारणसे स्वच्छता हो जाती है और वह निर्मलता साध्य कोटिपर यदि लाई जाय तो कीचके उपशम ( नीचे दब ) हो जानेपर हो जाती है । कचिके नहीं उपशम होनेपर तो जलकी प्रसन्नता नहीं साधी ( बनाई ) जा सकती है। क्योंकि कचिके घुल जानेपर तो जलमें मलमिश्रणरूप कलुषताकी प्रतीति हो रही है। तथा कीचका समूलचूल क्षय हो जाने पर भी वह उपशशम हो जानेपर उपजनेवाली प्रसन्नता नहीं सधपाती है। क्योंकि शांतपनेका विरोध होगा । अर्थात् प्रतिपक्षका क्षय हो जानेपर क्षायिकभाव भले ही हो जाय, किंतु औपशमिकभाव नहीं हो सकता है। एक मनुष्यका धन सर्वथा निवट गया है । भविष्यकालमें भी धन आनेकी आशा नहीं है। दूसरे मनुष्यके पास धन विद्यमान तो है किंतु वर्तमानमें उस धनका कोई उपयोग नहीं हो रहा है । सम्भवतः भविष्यमें उस धनका उपभोग किया जा सके, यहां पहिले मनुष्यसे दूसरे पुरुषके परिणामोंमें महान् अंतर है। पहिलेमें क्षीणता है । दूसरेमें चित्तको शांति है । क्षय दशामें शांति होनेका विरोध है । तिस ही प्रकार किसी आत्मामें सम्यक्त्व स्वरूप और चारित्रस्वरूप प्रसन्नता हो रही है, वह दर्शनमोहनीयकर्म और चारित्र मोहनीय पौद्गलिक कर्मके उपशम होनेपर ही होती है । जबतक उन कर्मोका फल देनेकी सामर्थ्य का प्रकट नहीं होना रूप उपशम नहीं होगा, तबतक आत्मामें वह श्रद्धान और स्वात्मस्थितिरूप प्रसन्नता नहीं प्रगटती है । कर्मोंका उपशम नहीं होने पर यानी उदय हो जाने पर तो मिथ्यादर्शन और असंयमरूप कलुषपने [ पाप ] का सम्वेदन होता रहता है । दर्शनमोहनीय या चारित्र मोहनीयके क्षय होनेपर वह उपशम साध्य प्रसन्नता नहीं बन सकती है। क्योंकि उपशम प्रयोजनको धारनेवाली जीवकी प्रसन्नतामें शांतिका अनुभव है किंतु कर्मोका क्षय हो जानेपर उपजनेवाली जीवकी स्वच्छतामें शांतपनेका विरोध है । क्षायिक भावमें शांतिका अनुभव नहीं होता है । अतः इस उक्त कथनको हम युक्तियोंसे लबालब पूर्ण हो रहा देख रहे हैं । कोई कोर कसर नहीं है।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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