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________________ 'तत्त्वार्थश्लोक वार्तिके अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ४ मिथ्यात्व ५ सम्या मध्यात्व ६ सम्यक्त ७ इन पांच छह या सातों प्रकृतियोंका उपशम होजानेपर औपशमिक सम्यक्त्वं भाव उपजता है और चारित्र मोहनीय कर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम कर देनेपर उपशम चारित्र होता है । औपशमिक भावके ये दो भेद हैं। एक उपशम सम्यक्त्व दूसरा उपशमचारित्र । १२ औपशमिकस्य द्वौ भेदावित्यभिसंबंध ः सामर्थ्यात् । तत्र दर्शनमोहस्योपशमादौपशमिकसम्यक्त्वं, चारित्रमोहोपशमादौपशमिकचारित्रं । 1 सूत्र यद्यपि " द्वौ भेदौ " ऐसा कहा नहीं है। तो भी यथाक्रम के अन्वयकी सामर्थ्यसे औपशमिक भावके ये दो भेद हैं यों उद्देश्य विधेयदलका दोनों ओरसे सम्बन्ध होजाता है । उन दोनों भेदोंमें अनन्तानुबन्धी चार कषायों को साथ रखते हुये दर्शन मोहनीय कर्मके उपशम हो जानेसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है और स्वकीय पुरुषार्थजन्य परिणामोंद्वारा चारित्र मोहनीय कर्मका अन्तरकरण उपशम होजाने पर उपशम प्रयोजनवाला चारित्र प्रकट हो जाता है । प्रथमोपशमसम्यक्त्व के लिए दर्शन मोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंका प्रशस्त उपशम और अनन्तानुबन्धी कषायोंका अप्रशस्त उपशम होता है। जहां क्ष पौद्गलिक प्रकृति उदय होने योग्य नहीं होती हुई स्थिति, अनुभाग, शक्तियां के उत्कर्षण, अपकर्षण के अयोग्य होकर संक्रमण होने योग्य भी नहीं होय, वहां उस प्रकृतिका प्रशस्त उपशम माना जाता है, और जो प्रकृति उदय आने योग्य तो नहीं होय, किन्तु उसका स्थिति या अनुभाग घट बढ़ जाय अथवा संक्रमण आदि हो सके, वहां उस प्रकृतिका अप्रशस्त उपशम कहा जाता है । सर्वघाती अनन्तानुबन्धीकी चार प्रकृतियों में स्वरूपाचरण चारित्र और सम्यक्त्व इन दोनों गुणोंके विघातकी शक्ति है । दर्शनमोहस्य चारित्रमोहस्य चोपशमः कथं कचिदात्मनि सिद्ध इति चेदुच्यते । यहां कोई पण्डित पूर्वपक्ष उठाता है कि किसी किसी आत्मा में दर्शनमोहनीयकर्म और चारित्र - मोहनीय कर्मका उपशम हो जाना किस प्रमाणसे किस प्रकार सिद्ध है ? बताओ, इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानंन्द आचार्य करके अनुमान प्रमाण द्वारा उपशमकी सिद्धि कही जाती है 1 पुंसि सम्यक्त्वचारित्रमोहस्योपशमः कचित् । शांतप्रसतिसंसिद्धेर्यथा पंकस्य वारिणि ॥ १ ॥ किसी एक विवादापन आत्मामें (पक्ष) सम्यक्त्वमोहनयिकर्म और चारित्रमोहनीय कर्मका उपशम हो रहा है । ( साध्य ) । क्योंकि शान्तिको प्राप्त होकर होनेवाली प्रसन्नता की भले प्रकार सिद्धि हो रही है । ( हेतु ) । जैसे समलजलमें मलके दव जानेपर कीचका उपशम हो रहा है । ( अन्वयदृष्टान्त ) । भावार्थ-रोग या दरिद्रतासे घिर जानेपर चित्तमें व्याकुलता उपजती है । किन्तु उनके प्रतिपक्ष औषधि मंत्रप्रयोग, धनप्राप्ति आदि कारणोंसे रोग या दरिद्रताका उपशम होते हुये चित्त प्रसन्न हो जाता है । उसी
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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