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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः झानेवाली बहुव्रीहि समासवृत्ति हो जाय तभी निजको अभीष्ट हो रहे अर्थकी सिद्धि हो सकेगी। अर्थात् पूर्वसूत्रोक्त प्रथमान्त पदोंके साथ इस सूत्रके प्रथमान्त " भेदा" पदका सामानाधिकरण्य बनकर क्रम अनुसार भेदसंख्या गिना दी जाती है । प्रत्येकं भेदशद्वस्य समाप्ति जिवन्मता । यथाक्रममिति ख्यातेप्यक्रमस्य निराक्रिया ॥२॥ जैसे ग्राममें अधिक दूषित कीच कूडा इकट्ठा होनेपर " ग्रामीणं शतेन दण्ड्यन्तां ” इस राजाज्ञाके अनुसार ग्रामनिवासी सम्पूर्ण मनुष्योंपर मिलाकर सौ रुपयेका दण्ड किया गया है। एक एक मनुष्यको सौ सौ रुपयेसे दण्डित नहीं किया गया है, तथा “ देवदत्तजिनदत्तागुरुदत्ता भोज्यन्तां" यहां एक व्यक्तिकी उदर तृप्ति कराने योग्य भोजनको तीनोंमें बांट दो यह अर्थ अभीष्ट नहीं है। किन्तु तीनोंको न्यारे न्यारे तृप्तिपूर्वक भरपेट भोजन कराना अर्थ अभीष्ट हो रहा है। अतः भोजनके समान यहां सूत्रमें द्वि, नव, आदि शद्वोंमेंसे प्रत्येक संख्येय वाचक शब्दके साथ भेद शब्दकी परिपूर्णरूपसे प्राप्ति हो जाना मानी गयी है । " द्वन्दादौ द्वन्द्वनते च श्रूयमाणपदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते " इस नियम अनुसार भेद शब्द सबके साथ लग जाता है । तथा इस सूत्रमें “ यथाक्रमम् ” इस प्रकार स्पष्ट कथन करनेपर तो अक्रमका निराकरण भी हो जाता है । अर्थात्-पूर्वमें उच्चारे गये औपशमिकके दो भेद आदि क्रम अनुसार समझे जायेंगे । व्यतिक्रमसे औपशमिकके नौ या अठारह भेद अथवा क्षायिकके तीन या इक्कीस भेद नहीं समझे जा सकेंगे। तथा च सत्येतदुक्तं भवति औपशमिको भावो विभेदः क्षायिको नवभेदः मिश्रोष्टादशभेदः औदयिक एकविंशतिभेदः पारिणामिकस्त्रिभेद इति ॥ ___ एवं तिस प्रकार वृत्ति और प्रत्येक के साथ भेद शब्द की समाप्ति कर देने पर तथा यथाक्रम कह देने पर सूत्रकार द्वारा यह मन्तव्य कहा जा चुका होजाता है कि औपशमिक भाव दो भेदवाला है, नौ भेदवाला क्षायिक है, अट्ठारह भेदों को धारनेवाला मिश्रभाव है, इक्कीस भेदों को लिये हुवे औदयिक भाव है, तीन भेद युक्त पारिणामिक है। यहांतक सूत्रका सन्दर्भित अर्थ श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा संगति प्राप्त कर दिया है। तत्रौपशमिकभेदद्वयपचिख्यापयिषया तृतीयसूत्रमाह । उन द्वितीय अध्यायके सात सूत्रोंमेंसे अब औपशामिक भावके दोनों भेदोंको अच्छा प्रसिद्ध करानेकी अभिलाषासे श्री उमास्वामी महाराज अब तीसरे सूत्रको स्पष्ट कहते हैं । सम्यक्त्वचारित्रे ॥ ३॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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