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तत्वार्थ लोकवार्त
धारनेवाला मनुष्य जीव औदयिक पारिणामिक द्विसंयोगीभाव है या क्षायिक सम्यग्दृष्टि, श्रुतज्ञानी, यह द्विसंयोगी भाव क्षायिकक्षायोपशमिकका सन्निपात है । अथवा उपशांतमोह, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, मनुष्य यह त्रिसंयोगी औपशमिक, क्षायिक, औदयिक, इन तीन भावों के समुदाय है । तथा क्षीणकाय, मतिज्ञानी, भव्य, मनुष्य, यह चतुःसंयोगी भाव क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक, औदयिक, इन चार भावोंके समुदायसे उत्पन्न हुआ है । इसी प्रकार पांचवां क्षायिक सम्यग्दृष्टि, उपशांतमोह, पंचेन्द्रिय, मनुष्य, जीत्र, यह पंच संयोगभाव क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक पांचों भावोंके सन्निपातसे उपजा है । इन सब सम्पूर्ण भावोंका च शद्वसे संग्रह कर लिया जाता है । पहिले च शद्वको नहीं कह कर क्षायोपशमिक शब्द के कह देने से ग्रन्थका गौरव हो जाता है । मिश्रश्च इन तीन वर्णोंके स्थानपर क्षायोपशमिक ये छह सस्वर वर्ण कहने पडते हैं । अतः ग्रंथ गौरव दोषका अभाव हो जानेसे औपशमिक और क्षायिकके अन्तमें और इस सूत्र के मध्य में क्षायोपशमिक शब्द नहीं कहना युक्त | अन्यथा यानी क्षायोपशमिक शद्वको कंठोक्त करनेपर उस ग्रन्थ गौरव दोषका प्रसंग बना रहेगा । अतः यह सूत्र पाचों भावों के लक्षण को निर्दोष होकर बढिया बखान रहा है। क्योंकि समस्त खोटी शंकाओं का पृथग्भाव कर दिया जाता है । अथवा सम्पूर्ण खोटी शंकाओंके विवेचनका अवसर ही नहीं रह पाता 1
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अथौपशमिकादिभेदसंख्याख्यापनार्थं द्वितीयं सूत्रम्-
अब औपशमिक, क्षायिक, आदि भावों के भेदों की संख्याको प्रसिद्ध करानेके लिये श्री उमास्वामी महाराज दूसरे सूत्रको कहते हैं ।
द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥
पूर्व उक्त औपशमिक आदि भावों के यथाक्रम से दो, नौ, अठारह, इक्कीस, और तीन भेद हैं । स्वपदार्थप्रधान समास करनेपर और अर्थ के वशसे पूर्वसूत्रोक्त प्रथमान्त पदोंको षष्टी विभक्ति अन्तकर देनेसे अर्थ हो जाता है । किन्तु " न कर्मधारयः स्यान्मत्वर्थीयो बहुब्रीहिश्वेदर्थप्रतिपत्तिकरः " इस नियम अनुसार बहुब्रीहि समासको प्रथम अवसर मिलनेपर तो दो भेदवाला औपशमिक है । नौ भेद वाला क्षायिक है, इत्यादि यह अर्थ सुन्दर है । अन्यपदार्थप्रधान समास वृत्ति करनेपर तो प्रथमान्त पदों के साथ ही इस सूत्र का सम्बन्ध कर लेना चाहिये ।
यादीनां भेदशन वृत्तिरन्यपदार्थिका ।
द्वंद्वभाजां भवेदत्र स्वाभिप्रेतार्थसिद्धितः ॥ १ ॥
यहां द्वौ च नव च अष्टादश च एकविंशतिश्च त्रयश्च " द्विनवाष्टादशविंशतित्रयः " इस प्रकार द्वन्द्व समास वृत्तिको धारनेवाले द्वि नव आदि शब्दोंकी भेद शब्द के साथ अन्य पदार्थको प्रधान सम