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तत्त्वाचिन्तामणिः
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कहा जाता है । यों चरम और उत्तम शब्दमें कर्मधारय वृत्ति कर ली गयी है। उत्तमका विशेषण चरम दिया है । वह उत्तम शरीरके अन्तिमरहितपनेकी निवृत्तिके लिये है । अर्थात्-उत्तमशरीर अन्तमें मोक्षगामी जीवको प्राप्त होता है । अन्य संसारी जीवोंका उत्तमशरीर भी चरम नहीं है तथा चरमके विशेष्य दलमें उत्तम शद्बका ग्रहण करना तो चरमशरीरके उत्तमरहितपनकी 'व्यावृत्ति करनेके लिये है । अर्थात् व्यभिचारकी संभावना होनेपर ही विशेष्यविशेषणभाव सार्थक माना गया है। जैसे कि नीलं उत्पलं, यहां उत्पल दूसरे रंगका भी संभावित है तथा कम्बल, भौरा, जामुन भी नीले होते हैं। किन्तु प्रकरण प्राप्त होरहा कुवलय नीला कुवलय ही है । इस संघटित अवस्थामें विशेष्यविशेषणभाव बन रहा है । उसी प्रकार यहां भी चरमशरीरी अन्तकृत्केवली भी होते है। एवं ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती या वसुदेवके पुत्र श्री कृष्ण नारायण भी उत्तमशरीरवाले माने गये हैं। अतः चरमशरीरवाले होते हुये भी उत्तम देहधारी यहां तीर्थंकर महाराजका ग्रहण किया गया है, ऐसा मेरी लघु बुद्धिमें आ रहा है । तत्त्वार्थसूत्रकी श्रुतसागर आचार्य विरचित टीकामें चरमोत्तमदेहधारी पदसे तीर्थकर परमदेव ही समझाये गये हैं । वहां यों लिखा है कि " चरमोंऽन्यः उत्तम उत्कृष्टो देहः शरीरं येषां ते चरमोत्तमदेहाः । तज्जन्मनिर्वाणयोग्यास्तीर्थकरपरमदेवा ज्ञातव्याः । गुरुदत्त पांडवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनात् नास्त्यऽनपवायुर्नियम इति न्यायकुमुदचन्द्रोदये प्रभाचन्द्रेणोक्तमस्ति । तथा चोत्तमदेहत्वेऽपि सुभौमब्रह्मदत्तापवायुर्दर्शनात् । कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्युदर्शनात्सकलार्द्धचक्रवर्तिनामप्यनपवायुर्नियमो नास्ति इति राजवार्त्तिकालंकारे प्रोक्तमस्ति " । इसका अर्थ यह है । चरम यानी अन्तिम उत्तम यानी उत्कृष्ट देह अर्थात्-शरीर जिन जीवोंका है वे जीव चरमोत्तम देहवाले हैं । जो कि उसी जन्ममें निर्वाण होनेके योग्य हैं । ये चरमोत्तम शरीरधारी जीव तीर्थकर परमदेव ही समझने चाहिये । क्योंकि गुरुदत्त मुनी, तीन पांडव, या अन्य भी कितने ही महान् उपसर्ग सहनेवाले अन्तकृत्केवली महाराजोंकी उपसर्ग करके मुक्ति होना शास्त्रोंमें देखा जाता है । अतः सम्पूर्ण चरमशरीरियोंके लिये आयुके हास नहीं होनेका नियम नहीं है। यों प्रभाचन्द्र स्वामीने न्यायकुमुदचन्द्रोदय नामक ग्रन्थमें कहा हुआ है। तथा उत्तम देहवाले होते हुये भी सुभौम और ब्रह्मदत्त सकलचक्रवर्तीकी आयुका मध्यमें अपवर्त हुआ देखा जाता है एवं उत्तमशरीरधारी अर्धचक्री कृष्ण नारायणकी जरतकुमारके बाण करके अपमृत्यु सुनी जाती है । अतः सकलचक्रवर्ती और अर्धचक्रवर्ती उत्तमदेहधारियोंकी आयुके मध्यमें नहीं छिन्न होनेका कोई नियम नहीं रहा । इस बातको श्री अकलंक देवने राजवार्तिकमें बहुत स्पष्ट रूपसे कह दिया है कि " अंत्यचक्रधरवासुदेवादीनामायुषोपवर्त्तदर्शनादव्याप्तिः ( वार्तिक ) उत्तमदेहाश्चक्रधरादयोऽनपवायुष इत्येतत् लक्षणमव्यापि । कुतः ? अंत्यस्य चक्रधरस्य ब्रह्मदत्तस्य वासुदेवस्य च कृष्णस्य अन्येषां च तादृशानां बाह्यनिमित्तवशादायुरपवर्त्तदर्शनात् । न वा चरमशदस्योत्तमविशेषणत्वात् । ( वार्तिक ) न वैष दोषः किं कारणं ? चरमशब्दस्योत्तमविशेषणत्वात् । चरम उत्तमो देह एषां ते चरमोत्तमदेहा इति" इसका अर्थ यह है कि चरमदेहधारी और उत्तमदेहधारी यों
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