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________________ ૨૯ तत्त्वार्य लोकवार्त न्यारा न्यारा अर्थ करनेपर द्वितीय दल में अव्याप्ति दोष आता है। कारण कि अन्तिम चक्रवर्ती और वासुदेव आदिका की आयुका शस्त्राघात आदि कारणोंसे मध्यमें ही अपकर्ष हो गया देखा गया है उत्तम देहवाले चक्रवर्ती आदिक भी परिपूर्ण आयुको भोगते हुये अच्छिन्न आयुवाले हैं, यों यह लक्ष अव्याप्ति दोषवान् हैं। क्योंकि अन्तके चक्रधारी ब्रह्मदत्त और वसुदेवके अपत्य कृष्ण तथा अन्य भी तैसे पांडव आदिकोंकी आयुका बहिरंग निमित्तोंकी अधीनतासे अपवर्त देखा गया है। इस अव्याति दोष का निराकरण करते हुये श्री अकलंक देव उत्तरवार्त्तिकको कहते हैं कि यह दोष हमारे यहां नहीं खाना है । क्योंकि चरम देहधारी और उत्तम देहधारी ये दो स्वतंत्र वाक्य नहीं माने गये हैं । किन्तु उत्तमका विशेषण चरम शुद्व है। जिन जीवों का देह चरम होता हुआ उचम है वे ही अच्छिन्न आयुवाले | अथवा " उत्तमविशेषणत्वात् " यहां बहुब्रीहि समास करनेपर चरमका विशेषण उत्तम सम लिया जाय । इस प्रकार कहने से चरमशरीरियोंमें तीर्थकर परम देवाधिदेवकी आयु ही अनपव है। शेष मोक्षगामी जीवोंकी आयुके अनपवर्त्य होनेका नियम नहीं, यह सिद्धान्त स्थिर हो जाता है। महान् उपसर्ग सहते हुये भी मुनि महाराज छट्ठे गुणस्थानमें आयुष्य कर्मकी उदीमा कर कल्पिय अन्तर्मुहूर्तोंमें क्षपकश्रेणी या बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों के कर्चन्यों को समख कार झटिति मुक्तिलाभ कर लेते हैं। मनुष्य आयु कर्मकी उदीरणा छदेवक ही मानी गयी है। हां, " ओक्कणकरणं पुण अजोगिसत्ताण जोगिचरिमोत्ति " इस गाथा अनुसार मनुष्षा आयुका अपकर्षण करण तो तेरहवें गुणस्थातक अभीष्ट किया है । उदीरणाके अन्य नियमोंको अन्तकृत केवलीके सिवाप अन्यत्र जीवों में लागू रखना जिससे कि सिद्धान्तविरोध नहीं होय । संजयंत, मजकुमार, आदि मुनियोंने उपसर्ग सहते हुये मध्यमें आयुको छिन्न कर मुक्तिलाभ किया है । " असंख्येयवर्षायु " का अर्थ यह है कि अलौकिकगणितके मुख्य रूपसे संख्यामान और उपमामान ये दो भेद हैं । पल्य सामन आदि प्रमाणोंसे जिन जीवोंकी आयु नापकर जानी जाती है वे जीव असंख्येयवर्षायुषः को जाते हैं । औपपादिक और चरमोत्तम देहधारी तथा असंख्यात वर्षों की आयुवाले यो इन्द्र- समास कृती करके सूत्रमें कहे जा चुके संसारी जीव अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं । इस नियमकारक बच्चनकी सामर्थ्य से बिना कहे ही यों समझ लिया जाता है कि इनसे अन्य संसारी जीवोंकी आयुका अपर्वत हो जाता है । भावार्थ - " विसवेयणर त्तक्खयभय सत्थग्गहणसंकिलेसेहिं । उसासा हाराणं णिरोदो हिरजाई आऊ " । विष, शूल, आदिको तीव्र वेदना, रक्त, आदि धातुओं का क्षय, तीव्र भय, शखभात, विशिष संक्लेश, तथा श्वासोच्छ्रास या आहारका निरोध होजाना इन कारणों से अपमृत्यु होकर बीचमें, की आ छिन्न होजाती है । पूर्वजन्ममें आयुष्य कर्मका बन्ध करते समय कषाय अनुसार वायु कर्मी स्थिति डाली थी उतनी स्थितिका पूरा भोग नहीं कर मध्यमें ही विष, शत्रघात, आदि द्वारा भविष्यम आने योग्य आयुष्यों के निषेकों को स्वल्पकालमें भोग लेना ही अपमृत्यु है । जैसे कि छह पचाने 1 योग्य अन्नका वडवानल चूर्ण द्वारा अतिशीघ्र पाचन कर लिया जाता है, अभत्र आफल, नीबू 66 ""
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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