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तत्त्वार्थीचन्तामणिः
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सुखकी, प्राप्तिके कारणोंको जुटाया है । अतः वे स्त्रीसम्बन्धी और पुरुषसम्बन्धी निरतिशय सुखका अनुभव करते रहते हैं । यों देव नपुंसकलिंगवाले नहीं हैं । इस प्रकार दोनों साध्य में यथाक्रम दो हेतु - ओंको लगाकर समझ लेना चाहिये । सूत्रकार के प्रतिज्ञावाक्योंमें ही समर्थहेतु छिपा हुआ है । आनुमानिक विद्वानों की दृष्टिमें अतीन्द्रिय पदार्थ भी प्रत्यक्षवत् प्रतिभास जाते हैं ।
शेषाः कियद्वेदा इत्याह ।
नारक, संमूर्च्छन, प्राणी और देवोंसे अवशिष्ट रहे जीवोंके कितने वेद हैं, ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री उमास्वामी महाराज नवीन सूत्रको कहते हैं ।
शेषास्त्रिवेदाः ॥ ५२ ॥
उक्त तीन प्रकारके जीवोंसे शेष रहे गर्भजन्य जीवोंके स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, और नपुंसकलिंग ये तीनों वेद होते हैं ।
उक्तेभ्यो ये शेषा गर्भजास्त्रिवेदाः प्रतिपत्तव्याः । कुत इत्याह ।
कहे जा चुके जीवोंसे जो शेष रहे गर्भज प्राणी हैं। वे तीनों वेदवाले समझ लेने चाहिये । कोई शिष्य जिज्ञासा करता है कि यह सिद्धान्त किस प्रमाणसे साधा जा चुका समझा जाय ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्त्तिकको कहते हैं ।
त्रिवेदाः प्राणिनः शेषास्तेभ्यस्तादृक् स्वहेतुतः । इति सूत्रत्रयेणोक्तं लिंग भेदेन देहिनाम् ॥ १ ॥
तिन नारक, सम्मूर्छन, और देवजीवोंसे शेष रहे प्राणी ( पक्ष ) स्त्री, पुल्लिंग, नपुंसक, तीनों वेदवाले हैं ( साध्य ) तिस प्रकार के अपने अपने हेतुओंसे निष्पत्ति होनेसे ( हेतु ) तीन लिंगवाले प्रसिद्ध सर्पों के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । भावार्थ- चारित्रमोहनीय कर्मके विकल्प हो रहे वेदत्रयके उदयसे जो वेदा जाय वह वेद है । इसका अर्थ द्रव्यलिंग या भावलिंग हो जाता है । कहीं द्रव्यलिंगके अनुसार ही भावलिंग होते हैं। हां, कर्मभूमिमें विषमता भी हो जाती है । स्त्रियोंके पुंवेदका उदय और पुरुषों में स्त्रीवेद या नपुंसक वेदका उदय भी कदाचित् पाया जाता है । गर्भज जीवों में अपने अपने नियत कारणोंसे यथायोग्य तीनों वेद पाये जाते हैं । इस प्रकार " नारकसंमूर्छिनो नपुंसकानि, न देवाः, शेषास्त्रिवेदाः " इन तीनों सूत्रों करके शरीरधारी प्राणियोंके भिन्न भिन्न रूपसे लिंग कह दिये गये हैं ।
स्त्रीवेदोदयादिः स्त्रीवेदस्य हेतुः पुंवेदोदयादिः पुंवेदस्य, नपुंसकवेदोदयादिः नपुंसकवेदस्येति । तत एव प्राणिनां स्त्रीलिंगादित्रयसिद्धिरिति भेदेन लिंगं सकलदेहिनां सूत्रत्रयेणोक्तं वेदितव्यं ।