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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
तिस प्रकार नपुंसकलिंगी नहीं हैं । इन दो सूत्रोंके प्रमेयमें वे वक्ष्यमाण दो ज्ञापक हेतु हैं कि पूर्व जन्ममें स्त्रियोंके उचित सुखों और पुरुषोंके समुचित सुखोंकी अच्छी प्राप्तिके कारण होरहे शुभ क्रियायोंका अनुष्ठान या पुण्यविशेषकी हीनता होजानेसे नारक और सम्मूर्छन जीव स्वकीय पापोदयसे इस जन्ममें नपुंसकलिंगी होजाते हैं । जैसे कि पुण्यहीन अवस्थामें पापकर्मका उदय आजानेपर कई घोडे या बैल बहिरंग रूपसे नपुंसक कर दिये जाते हैं अथवा कोई कोई गर्भज मनुष्य या पशु भी नपुंसक देखे जाते हैं । देव नपुंसकलिंगी नहीं हैं । क्योंकि पूर्वजन्ममें आधुनिक नपुंसकपनेके दुःखकी प्राप्तिका कारण मानी गयीं अशुभक्रिया या नपुंसकवेदकर्मका उपार्जन नहीं होनेसे देव स्वकीय इस जन्ममें, नपुंसक नहीं होपाते हैं। यों दोनों सूत्रोंमें दोनों हेतुओंको यथाक्रमसे लगा लेना चाहिये ।
नारकाः संमूर्छिनश्च पाणिनो नपुंसकान्येव, स्त्रीससुखसंप्राप्तिकारणरहितत्वात् पूर्वस्मिन् भवे नपुंसकत्वसाधनानुष्ठानात् । देवास्तु न कदाचिन्नपुंसकानि जायंते नपुंसकत्वदुःखातिकारणाभावादिति यथाक्रमं साध्यद्वये हेतुद्वयं प्रत्येयं ।
____ श्री विद्यानन्द स्वामी दो अनुमान बनाते हैं कि नारक जीव और समूर्छन प्राणी ( पक्ष ) नपुंसक ही होते हैं, ( साध्य )। स्त्रसुख और पुरुष सुखकी समीचीन प्राप्तिके कारणोंसे रहित होनेसे ( हेतु ) साथमें पूर्वभवमें नपुंसकपनेके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे ( हेतु ) । अर्थात्-वर्तमानके नारक या संमूर्छन जीवोंने पूर्वभवमें ऐसे प्रशस्त कार्य नहीं किये थे जिससे कि इस जन्ममें स्त्रीसुख, या पुरुषसुखकी प्राप्ति हो जाती । अधिक लज्जा करना, कोरा श्रृंगार करनेमें समय यापन करना, अधिक अभिमान करना, दब्बू बने रहना, संज्ञी विचारशाली सामर्थ्यवान् होते हुये भी महान् कार्योको नहीं कर सकना, पुरुषोंसे प्रेमप्राप्तिके भाव रखना, इनसे और इनके अतिरिक्त कुछ शुभकर्म करनेसे भी भविष्यमें स्त्रीसुखोंकी प्राप्ति हो जाती है तथा अल्पक्रोध, स्वदारसन्तोष, श्रृङ्गार करने में अनादर, महान् कार्योंमें पुरुषार्थ करना, चित्तमें उदारता रखना, वीरता आदि क्रियाओंसे भविष्यमें पुरुष उचित सुखोंकी प्राप्ति होती है । ये दोनों प्रकारके कार्य नारकी और संमूर्छन जीवोंने नहीं कर पाये हैं । तथा प्रचुर क्रोध, गुप्त जनन इन्द्रियोंका घात, स्त्रीपुरुषोंके, कामसेवन अंगोंसे भिन्न अंगोंमें आसक्ति करना, व्यसन सेवना, परस्त्रीमें लोलुपता रखना, तीव्र अनाचार आदिक नपुंसकत्वके साधनोंका पहिले जन्मोंमें अनुष्ठान किया है । इस कारणं इस जन्ममें नपुंसकलिंगवाला होना पड़ा है। इनके स्त्री और पुरुषोंमें पाया जा रहा मनोज्ञ पंचेंद्रियोंके विषय माने गये शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श, रूपके, निमित्तसे होनेवाला स्वल्प भी सुख नहीं है। तथा दूसरा अनुमान यों है कि देव तो ( पक्ष ) कभी भी नपुंसक लिंगवाले नहीं उपजते हैं (साध्य ) । नपुंसकपन दुःखकी प्राप्तिके कारणोंका अभाव होनेसे ( हेतु ), भोगोपभोगी, बलिष्ठ, धनाढ्य, प्रेमयुक्त दम्पतिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) अर्थात्-देव देवियोंने पूर्वभवमें अत्यधिक लोभपरिणाम शुभकार्यों में अनुत्साह, व्यभिचार आदि कारणों द्वारा नपुंसकत्वके साधनों को नहीं मिला पाया है, किन्तु प्रशस्त कृतियों द्वारा स्त्रीसुख, और पुरुष