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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः २५३ 1 I जाता है। मधु मक्खी, खटमल, झींगुर, जूंआ आदि जीवों की भी यही व्यवस्था है। माता पिता के शुक्र, शोणित, से गर्भाशयमें इन जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है । यों तो कवि लोगोंने घडा बडी, कटोरा कटोरी, नद नदी, चादर चादरा, आदि जड पदार्थोंमें भी स्त्रीलिंग, पुल्लिंगका व्यवहार कर लिया है । वैज्ञानिकोंने केला केली, भी मान लिये हैं । स्त्रियोंके पाद प्रहार या कुल्ला करनेसे कई वृक्षों का फलना, फूलना, अभीष्ट किया गया है । इसमें कल्पना भाग बहुत है । सम्मूर्छन शरीरों के उपयोगी साधनों के जुटाने में सहाय कर देना मात्र भित्तिपर भारी कल्पनायें गढ ली गयी हैं, जो कि नियत कार्यकारणभावका भंग कर देनेवालीं हैं । सिद्धांत दृष्टिसे विचारनेपर सम्पूर्ण सम्मूर्छन जीव नपुंसक लिंगी ही सिद्ध होंगे । वृक्षोंमें स्त्री या पुरुषोंके समुचित अंगोपांग ही नहीं है । द्वीन्द्रिय, त्रीद्रिय, चौइन्द्रिय जीवों के गर्भाशय नहीं हैं। अतः आचार्योंने जो इन्हें नपुंसक लिंगी कहा है, 1 1 वह युक्तिपूर्ण है 1 I देवेषु तत्प्रतिषेधमाह । 5 देवोंमें उस नपुंसक लिंगका सर्वथा निषेध करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रो कह रहे हैं । न देवाः ॥ ५१ ॥ चारों निकाय सम्पूर्ण देव नपुंसक लिंगवाले भी नहीं हैं । सम्पूर्ण देवियां स्त्रीलिंग हैं तथा देव सम्पूर्ण पुल्लिंग ही हैं । देवा नपुंसकानि नैव संभवतीति सामर्थ्यात् पुंमासो देवाः स्त्रियश्च देव्यो भवतीति गम्यते । कुत इत्याह ! 14 देव गतिवाले जीवोंमें नपुंसक लिंगकी सम्भावना नहीं है, यों निषेध कर देनेसे विना कहे ही शद्वकी सामर्थ्यसे विधिमुख करके यह जान लिया जाता है कि देवनिकाय में पुल्लिंगवाले देव होते हैं । और स्त्रीलिंगवाली देवियां होती हैं। कोई पूंछता है कि यह उक्त सिद्धान्त किस प्रमाणसे सिद्ध किया जाय ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम दो वार्तिकोंमें युक्तियों को कहते हैं । नारका देहिनंस्तत्र प्रोक्तोः संमूर्छिनश्च ये । नपुंसकानि ते नित्यं न देवा जातुचित्तथा ॥ १ ॥ स्त्रीपुंस सुख प्राविहेतु हीनत्वतः पुरा । नपुंसकत्वदुःखाप्तिहेत्वभावाद्यथाक्रमं ॥ २ ॥ नारकी जीव और सम्मूर्च्छन शरीरधारी प्राणी जो वहां प्रकरणोंमें अच्छे ढंगसे कहे जा चुके हैं, सम्पूर्ण जी अपनी अवस्थापर्यन्त सर्वदा नपुंसकलिंगी ही बने रहते हैं । हां, देव तो कभी भी
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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