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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
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यहांतक यों उक्त प्रकार चौदह सूत्रों करके विस्तारसे संसारी जीवोंके शरीरोंको श्री उमास्वामी महाराजने अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकार किये गये अनेक कल्पित शरीरोंकी विशेषतया निवृत्ति करनेके लिये स्पष्ट कह दिया है। अर्थात्-" औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकामणानि शरीराणि " से प्रारंभ कर " शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव" इस सूत्र पर्यन्त, चौदह सूत्रों करके पांच शरीरोंका व्याख्यान सूत्रकारने किया है, जो कि अन्य मतावलम्बियों द्वारा माने गये शरीरोंकी निवृत्ति करता रहता है। कोई पंडित स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर दोहीको स्वीकार करते हैं। वैशेषिक तो योनिज
और अयोनिज इस प्रकार शरीरके दो भेद मानते हैं । बौद्धजन स्वप्नान्तिक अथवा स्वाभाविक शरीरोंको भी मान बैठे हैं । नैयायिक समाधिअवस्थामें योगी, स्त्री, पुत्र, राज्य, आदि भोगोंको भोगनेके लिये अनेक शरीरोंका निर्माण कर लेता है, भोगे विना काँका नाश नहीं हो पाता है, ऐसा मान बैठे हैं । इत्यादि मन्तव्योंकी निवृत्तिके लिये आचार्योंने पांच ही शरीरोंका अन्यूनानतिरिक्तरूपसे निरूपण किया है । अब न्यारा प्रकरण चलाया जाता है ।
. अथ के संसारिणो नपुंसकानीत्याह । कोई जिज्ञासु पूंछ रहा है कि कौनसे संसारी जीव नपुंसकलिंगी हैं ? ऐसी आकांक्षा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं ।
नारकसंमूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ __सात नरकोंमें निवास करनेवाले नारकी तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिन्द्रिय, जीव और पंचेन्द्रियोंमें अनेक तिर्यंच एवं मनुष्योंमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य ये संमूर्छन जन्मवाले जीव नपुंसकलिङ्गी हैं । अर्थात्-अवाकी अग्निके समान कषायवाले इन जीवोंके मैथुनसंज्ञाजन्य तीनवेदना बनी रहती है । इस कारण इनकी आत्मामें सर्वदा कलुषता रही आती है । स्त्री या पुरुषोंमें पाये जानेवाले स्पर्शन इन्द्रियजन्य सुख इनको नहीं प्राप्त होते हैं। .
नारकाः संमूर्छिनश्च नपुंसकान्येव भवंति । ____घनांगुल परिमित प्रदेशोंकी संख्याके दूसरे वर्गमूलसे गुणा की गयी जगच्छ्रेणीके प्रदेशों बराबर सम्पूर्ण नारकी जीव असंख्याताऽसंख्यात हैं । तथा सम्मूर्छन जन्मवाले अनन्तानन्त संसारी जीव हैं । ये सब नपुंसक ही होते हैं । भावार्थ-इनमें स्त्री, पुरुष, व्यवहार नहीं है, कभी कभी दो मक्खियां चिपटी हुई देखी जाती हैं । ये उनकी केवल शारीरिक क्रिया है । कोई गर्भधारण क्रिया नहीं है। यों तो कोई कोई खिलोने भी चिपटे हुये देखे जाते हैं, चीटियोंके अण्डे भी उनके पेटसे निकले हुये नहीं हैं । केवल यहां वहां मल, मूत्र स्थानों से सडे, गले, हुये पुद्गलोंको लेकर वे विशेष स्थानोंमें धर लेती हैं, कालान्तरमें वहां जीवोका जन्म होकर वही पुद्गल चीटियोंका शरीर बन