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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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आदि संक्लेश परिणामोंकी अधीनतासे विक्रिया, तैजस, आदिका बना लेना देखा जाता है । अतः वैकियिक या तैजसशरीरमें विशुद्ध कारणपनेका सार्वत्रिक, सार्वदिक, सार्वव्यक्तिक, नियम नहीं है । यों व्यभिचार दोषकी निवृत्ति हो जाती है ।
अव्याघातिस्वरूपत्वादाहारकं शरीरांतराद्भिन्नमित्यस्मिन्नपि तैजसादिनो हेतोर्व्यभिचार इत्यचोद्यं, प्राणिबाधापरिहारलक्षणस्याव्याघातित्वस्य हेतुत्वात् । प्रमत्ताधिपतित्वमपि नाहारकस्य शरीरांतराद्भेदे साध्येनैकांतिकं, विशिष्टप्रमत्ताधिपतित्वस्य हेतुत्वात् । ततः सूक्तं फलहेतुस्वरूपाधिपतिभेदेन भिन्नमाहारकमन्येभ्यः शरीरेभ्यो निश्चितमिति ।
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पुनः किसीका तीसरे अनुमानपर कुचोद्य उठता है कि अव्याघातिस्वरूप होनेसे आहारकशरीर अन्य वैक्रियिक आदि शरीरोंसे भिन्न है । यों इस अनुमानमें भी तैजस आदि शरीरों करके अव्याघातिपन हेतुका व्यभिचारदोष आता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का औदारिक शरीर अव्याघाति है, कहीं रुकता नहीं है, किसीको रोकता भी नहीं है । तैजस और कार्मणशरीर तो “ अप्रतीघाते " इस सूत्रकरके व्याघातरहित साधे ही जा चुके हैं, वैक्रियिक शरीर भी पर्वत या वज्र पटलमें होकर चले जाते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि यह पर्यनुयोग हमारे ऊपर नहीं उठाया जा सकता है क्योंकि प्राणियों की बाधाका परिहार कर देना यही अव्याघातिपनका स्वरूप यहां हेतुकोटिमें विवक्षित है । आहारकशरीर जहां होकर निकल जाता है, वहांके प्राणियोंकी रोग, भय, आदि बाधायें दूर होती चली जाती हैं । वैक्रियिक शरीरधारी इन्द्रकी शक्तिका भी प्रतिघात हो जाना सुना गया I किन्तु आहारकशरीरकी सामर्थ्य अप्रतिहत है । जिसके शरीरमें एक बार होकर निकल जाता है, उसको बार बार आहारक शरीरके आने, जाने, की अभिलाषायें बनी रहती हैं । प्राणियों की बाधाओं का परिहार जितना आहारकशरीरसे होता है, उतना अन्य शरीरोंसे नहीं हो पाता है । आहारक शरीरके स्वामी छठे गुणस्थानवर्त्ती प्रमत्तसंयमी हैं । यह चौथा हेतु भी आहारकशरीर के इतर शरीरोंसे भेदको साध्य करनेमें व्यभिचारी नहीं है । क्योंकि सभी छठे गुणस्थानवर्ती मुनियोंके नहीं, किन्तु हजारों, लाखों, मेंसे किसी एक विशिष्ट प्रमत्तसंयमी मुनिको आहारक शरीरका अधिपतिपना प्राप्त हो सकता है । उस विशिष्टताके लगा देनेसे प्रमत्ताधिपतित्व हेतु निर्दोष बन जाता है । तिस कारण श्री उमास्वामी महाराजने सूत्रमें या मुझ विद्यानन्द स्वामीने उक्त दो वार्तिकोंमे यों बहुत अच्छा कहा था कि फल १ हेतु २ स्वरूप ३ और अधिपति ४ के भेद करके ये आहारक शरीर अन्य चारों शरीरोंसे भिन्न ही निर्णीत कर दिया गया है। यहांतक पांचों शरीरों का निरूपण समाप्त हो चुका है।
चतुर्दशभिरित्येवं सूत्रैरुक्तं प्रपंचतः ।
शरीरं तीर्थिकोपेतशरीरविनिवृत्तये ॥ ३ ॥