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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
है। यदि देव दिखाना चाहें तो उनके शरीरके रूपको मनुष्य भी नेत्र द्वारा देख लेते हैं । नाकसे गंधको सूंघ लेते हैं। हस्तप्रमाण धौला आहारक शरीर भी अतीन्द्रिय नहीं है । हां, तैजस और कार्मण अतीन्द्रिय हैं । इन्द्रियों द्वारा उनका उपभोग नहीं किया जा सकता है । इसी बातको प्रन्थकार श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज अग्रिम वार्तिक द्वारा स्पष्ट कहते हैं। .
अंत्यं निरुपभोगत्वाच्छेषेभ्यो भिद्यते वपुः ।
शब्दाद्यनुभवो ह्यस्मादुपभोगो न जायते ॥१॥ __ अन्तमें होनेवाला कार्मण शरीर तो उपभोगरहित होनेसे योगनिमित्त हुये अवशिष्ट शरीरोंसे भिन्न होजाता है । कारण कि इस कार्मणशरीरसे शब्द, रूप आदिका अनुभव होजाना रूप उपभोग नहीं उत्पन्न हो पाता है।
औदारिकं किंविशिष्टमित्याह । कोई पूछता है कि किन विशेषणोंसे युक्त हो रहा औदारिक शरीर है ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अगले सूत्रको कह रहे हैं।
गर्भसंमूर्छनजमाद्यम् ॥४५॥ ____मनुष्य या तिर्यंचोंके गर्भ और संमूर्छन जन्मसे उत्पन्न हुये शरीर तो आदिके औदारिक शरीर माने जाते हैं।
गर्भसंमूर्छनजं पाठापेक्षयाघमौदारिकं तद्गर्भ संमूर्छनजं च प्रतिपत्तव्यं। तत एव सोप. भोगाभ्यामपि पराभ्यां शरीराभ्यां तद्भिद्यते इत्याह ।
____ गर्भजन्य और संमूर्छनजन्यका अर्थ यह है कि " औदारिकवक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि " इस सूत्र पाठकी अपेक्षा करके आदिमें उपात्त किया गया औदारिक शरीर है वह गर्भजन्मा जीवोंके और संमूर्छन जन्मवाले जीवोंके सम्भवरहा समझ लेना चाहिये । तिस ही कारणसे उपभोगसहित होरहे परले वैक्रियिक और आहारक दो शरीरोंसे वह औदारिक शरीर भिन्न होरहा है। इसी बातको ग्रंथकार श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा स्पष्ट कहते हैं। .
आयं तु सोपभोगाभ्यां पराभ्यां भिन्नमुच्यते । गर्भसंमूर्छनाद्धेतोर्जायमानत्वतो भिदा ॥१॥
सूत्रक्रमकी अपेक्षा आदिमें होनेवाला अथवा मोक्षप्राप्तिकी अपेक्षा प्रधान होरहा आद्य औदारिक शरीर तो ( पक्ष ) उपभोगसहित होरहे परले दो शरीरोंसे भिन्न कहा जाता है ( साध्यदल )