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तत्त्वार्थीचन्तामणिः
तैजसमप्येवं निरुपभोगमस्त्विति चेन्न, तस्य योगनिमित्तत्वाभावादनधिकारात् । यदेव हि योगनिमित्तमौदारिकादि तदेव सोपभोगं प्रोच्यते निरुपभोगत्वादेव च कार्मणमौदारिका - दिभ्यो भिन्नं निश्चीयत इत्याह ।
यहां किसीका प्रश्न है कि बहिरंग इन्द्रियोंद्वारा जिसके शब्द, रूप, आदिको नहीं जाना जा सके, वह शरीर यदि निरुपभोग है, तब तो इस प्रकार तैजसशरीर भी उपभोगरहित होजाओ । ऋद्धिधारी मुनि या सर्वावधिज्ञानी अथवा देवेंद्र, अहमिन्द्रोंतकको इन्द्रियोंद्वारा तैजसशरीर के रूप, रस, आदिकी ज्ञप्ति नहीं हो पाती है । आचार्य कहते हैं यह तो नहीं कहना । क्योंकि योगका निमित्तकारण नहीं होनेसे उस तैजसशरीरका यहां प्रकरणमें अधिकार नहीं है । जब कि जो ही आत्मप्रदेशपरिस्पन्दस्वरूप योग के निमित्तकारण हो रहे औदारिक वैक्रियिक आदिक शरीर हैं, वे ही उपभोगसहित भले प्रकार कहे जा रहे हैं । निरुपभोग होनेसे ही कार्मण शरीर इन औदारिक आदिकोंसे भिन्न हो रहा निश्चय किया जा रहा है । भावार्थ – सात प्रकारके काययोगों के निमित्त कारण औदारिक, वैक्रियिक, आहारक और कार्मण ये च । औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक काययोग, वैकियिक मिश्रकाययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाययोग, कार्मण काययोग, अथवा सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, मनोयोग या वचनयोग इन पन्द्रह योगोंमेंसे यथायोग्य जिस समय कोईसा भी एक योग होगा, उसी योग करके आहार वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा के समान तैजस वर्गणा भी इनके साथ घिसटती हुई चली आती है । जब कि वचनयोगसे आहारवर्गणा, मनोवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ́ खिच आतीं हैं । अथवा विग्रह गतिके कार्मणयोगसे सूक्ष्म स्थूल शरीर भाषा और मनके उपयोगी वर्गणाओं का आकर्षण हो रहा है, ऐसी दशा में तैजस योगको माने बिना भी तैजस वर्गणाका आकर्षण हो सकता है । बात यह है कि तैजसवर्गणा आत्मा के प्रदेश परिस्पन्दका अवलम्ब नहीं है । भिन्न भिन्न पदार्थों में न्यारी न्यारी जातिकी शक्तियां हैं। जाडेके दिनों में शीतजल दातों या शरीरको कंपा देता है, अग्नि या उष्णजल नहीं कंपा पाता है, आत्मप्रदेश परिस्पन्द स्वरूप द्रव्ययोगका अन्तरंग कारण भावयोग है । " पुग्गलविवाइ देहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स, जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो " । जो कि पहिले गुणस्थान से लेकर तेरहवें तक पाया जा रहा आत्मा का पुरुषार्थ विशेष है। जैसे लोटाका जल, घडेका जल, यों उसी जलके आश्रय भेदसे कई भेद कर दिये जाते हैं, उसी प्रकार संचित मन, वचन, काय, या ग्रहण करने योग्य वर्गणाओं का अवलम्ब हो जानेसे योगके पन्द्रह भेद कर दिये गये हैं तैजस शरीर के निमित्तसे आत्मामें कंप नहीं होने पाता है हम क्या करें ? । अतः योगके निमित्त हो रहे शरीरों के उपभोगसहितपन और उपभोगरहितपनका यहां निर्णय किया गया है । औदारिक शरीरोंके हाथोंकी ताली बजानेपर हुये शद्वकी या औदारिक के रूप, गंध, आदिकी इन्द्रियों द्वारा उपलब्धि हो रही है । वैक्रियिक शरीर के रूप आदिकों का देव और नारकियोंको प्रत्यक्ष हो रहा
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