SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० तत्त्वार्य लोकवार्तिके द्वारा ज्ञान क्या हो जाता है ? अथवा क्या किसी किसी शरीरके पौद्गलिक भावोंका इन्द्रियोंसे उपलम्भ नहीं भी हो पाता है ? बताओ । इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं। निरुपभोगमंत्यम् ॥४४॥ शरीरोंको गिनानेवाली सूत्रकथनीके अनुसार अन्तमें प्रयुक्त किया गया कार्मण शरीर तो अन्त्य है । इन्द्रियों द्वारा उसके शब्द, रूप, रस, आदिकी उपलब्धि नहीं हो सकनेसे कार्मण शरीर उपभोगरहित है। प्रागपेक्षया अंत्यं कार्मणं तनिरूपभोगमिति । सामर्थ्यादन्यत्सोपभोग गम्यते । कर्मादानसुखानुभवनहेतुत्वात्सोपभोगं कार्मणमिति चेन, विवक्षितापरिज्ञानात् । इंद्रियनिमित्ता हि शद्धाधुपलब्धिरूपभोगस्तस्मानिष्क्रांतं निरुपभोगमिति विवक्षितं । पूर्ववर्ती चारों शरीरोंकी अपेक्षा करके अन्तमें कहा गया पांचवां कार्मण शरीर अन्त्य है, वह इन्द्रियों द्वारा उपभोग करने योग्य नहीं है । अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी अथवा केवलज्ञानी महाराज यद्यपि कार्मण शरीरके रूप, रस, शब्द, आदिकोंका विशद प्रत्यक्ष कर लेते हैं, किन्तु वे भी बहिरंग इन्द्रियों द्वारा कार्मण शरीरके रूप रस आदिका सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष या मतिज्ञान नहीं कर पाते हैं। जैसे कि सर्वज्ञको परमाणुके रूप, रस, आदिका इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं हो पाता है, श्रृंगार रसमें डूब रहा पुरुष स्त्रीके औदारिक या वैक्रियिक शरीरमें पाये जा रहे गन्ध, स्पर्श, रूप, आदिका उपभोग कर सकता है, दिन रात भोगोंमें लीन हो रहा देवेंद्र भी देवियोंके कार्मण शरीरका इन्द्रियों द्वारा परिभोग नहीं कर सकता है । अतः अन्तका शरीर इन्द्रियों द्वारा उपभोग्य नहीं है। इस कार्मण शरीरके उपभोग होनेका निषेध कर देनेसे विना कहे ही शब्दसामर्थ द्वारा यह अर्थ जान लिया जाता है कि शेष अन्य शरीर तो इन्द्रियों द्वारा उपभोगसहित हो रहे हैं । यदि यहां कोई यों कहे कि कार्मण शरीरका अवलम्ब लेकर आत्मा अपने योगनामक प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करके कर्मीका ग्रहण करता है । कार्मण शरीर द्वारा आत्मा सुखका अनुभव करता है । अतः कर्मग्रहण, सुखानुभव, शरीररचना, वचन बोलना आदिका हेतु होनेसे कार्मणशरीर भी उपभोग सहित है, जैसे कि भोग, उपभोग योग्य सामग्रीका साधन होनेसे रुपया उपभोगसहित माना जाता है । आचार्य कहते हैं यह · तो नहीं कहना । क्योंकि प्रकरण अनुसार विवक्षा प्राप्त हो रहे उपभोगका शंकाकारको परिज्ञान नहीं है । कारण कि इन्द्रियोंको निमित्त कारण मान कर हुई शब्द, रूप, आदिकोंकी ज्ञप्ति हो जाना यहां उपभोग माना गया है । उस उपभोगसे जो बाहर निकाल दिया गया है, वह निरूपभोग है, यह अर्थ यहां विवक्षाप्राप्त है।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy