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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः सर्वस्य संसारिणस्तैजसकार्मणशरीरे तथानादिसंबंधे न पुनः कस्यचित्सादिसंबंधे येनात्मनः शरीरसंबंधानुपपत्तिः । कुतः इत्याह । सम्पूर्ण संसारी जीवोंके वे तैजस कार्मण शरीर तिस प्रकार धारारूपसे अनादि सम्बन्धवाले हैं । किन्तु फिर किसी भी एक जीवके वे मूलरूपसे सादि सम्बन्धवाले नहीं हैं, जिससे कि आत्माके साथ औदारिक आदि शरीरोंके सम्बन्ध हो जानेकी असिद्धि हो जाय । कोई यहां आक्षेप करता है कि किस प्रमाणसे आपने यह जाना कि वे दोनों शरीर सभी जीवोंके अनादि सम्बन्धवाले हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी अगली वार्तिकमें यों समाधान वचन कहते हैं । सर्वस्यानादिसंबंधे चोक्ते तैजसकार्मणे । शरीरांतरसंबंधस्यान्यथानुपपत्तितः ॥१॥ सभी जीवोंके वे तैमस और कार्मण शरीर ( पक्ष ) अनादि कालसे सम्बन्ध रखनेवाले कहे जा चुके हैं ( साध्य ) अन्य शरीरों के सम्बन्ध होनेकी अन्यथा अनुपपत्ति होनेसे ( हेतु ) अर्थात्मूर्त पदार्थका ही दूसरे मूर्त पदार्थके साथ सम्बन्ध हो सकता है । अमूर्त आकाशमें तलवार या विष अपना प्रभाव नहीं जमा सकते हैं । परतंत्र हो रहा यह आत्मा विजातीय पदार्थके साथ तभी बंध सकता है जब कि पहिलेसे अनादि कालीन कौके साथ बंध रहा मूर्त होय, अन्यथा नहीं । एतावता जीवके साथ उन दो शरीरोंका अनादिसम्बन्ध सिद्ध हो जाता है । तैजसकार्मणाभ्यामन्यच्छरीरमौदारिकादि तत्संबंधोस्मदादीनां तावत्सुप्रसिद्ध एव स च तैजसकार्मणाभ्यां संबंधोनादिसंबंधमंतरेण नोपपद्यते मुक्तस्यापि तत्संबंधप्रयोगात् । तैजस और कार्मण शरीरोंसे न्यारे शरीर औदारिक आदिक हैं। उन औदारिक आदिकोंका सम्बन्ध तो हम आदि संसारी जीवके भले प्रकार प्रसिद्ध ही है और वह तैजस और कार्मणके साथ हो रहा सम्बन्ध माने विना नहीं बन सकता है । अन्यथा मुक्तजीवके भी उन शरीरोंके साथ सम्बन्ध होनेका प्रयोग होने लग जावेगा, जो कि किसीने नहीं माना है । अतः तैजस और कार्मणका जीवके साथ अनादिकालीन सम्बन्ध मानना चाहिये । तभी जीवका औदारिक आदि शरीरोंके साथ सम्बन्ध होना बन सकेगा जो कि प्रायः सभी जीवोंके प्रत्यक्षगोचर है। अथैतानि शरीराणि युगपदेकस्मिन्नात्मनि कियंति संभाव्यंत इत्याह । यहां श्री उमास्वामी महाराजके प्रति किसीका प्रश्न है कि ये शरीर एक आत्मामें एक समयमें अधिकसे अधिक कितने हो रहे सम्भव जाते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको स्पष्टकर कह रहे हैं। तददीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ॥ ४३ ॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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