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तत्रार्थ श्लोकवार्तिके
कारण मूर्त है । संसारी जीव विचारा मुक्तात्मा या आकाशके समान अमूर्त नहीं है । अतः मूर्तजीवका ही मूर्त शरीरों के साथ सम्बन्ध हो जाता है । अमूर्तका मूर्तद्रव्य के साथ बंध नहीं हो सकता 1
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अनादिः संबंधो ययोरात्मना ते यथा तैजसकार्मणशरीरे, च शब्दात्सादिसंबंधे ते प्रतिपत्तव्ये । ततो नैकांतेनामूर्तत्वमात्मनः परशरीरसंबंधात्पूर्व येन तदनुपपत्तिः तत्संबंधात् प्रागपि तस्य तैजसकार्मणाभ्यां संबंधसद्भावात् । ततः पूर्वमप्यपराभ्यां ताभ्यामित्यनादितत्संबंधसंतानः प्रतिविशिष्टतैजसकार्मणसंबंधात् सैव सादिता ।
जिन तैजस और कार्मणका आत्मा के साथ सम्बन्ध अनादिकालसे चला आता है, वे तैजस और कार्मण शरीर यथायोग्य अनादि सम्बन्धवाले कहे जाते हैं । सूत्रमें समुच्चयवाचक च शद्ब भी पडा हुआ है । इस कारण वे तैजस और कार्मण शरीर सादि सम्बन्धवाले भी समझ लेने चाहिये । अर्थात्–तैजस शरीर छ्यासठ सागरसे अधिक नहीं ठहरता है । कोई भी वर्तमानका कार्मण श I सत्तर कोटाकोटी सागरसे अधिक नहीं ठहर सकता है । किन्तु कार्यकारणभावकी सन्तानसे उनका प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है। तभी तो विशेष विशेष तैजस शरीर या कार्मण शरीरकी अपेक्षासे वे सादि सम्बन्धवाले भी हैं । जैसे कि बीज और वृक्षकी सन्तान अनादि है, किन्तु विशेष बीज या कोई एक पकड लिया गया वृक्ष तो सादिकालका है । तिस कारणसे दूसरे शरीरों के सम्बन्धसे पहिले आत्माको एकान्तरूपते अमूर्तपना नहीं है । जिससे कि उस शरीर के सम्बन्ध असिद्धि हो जाय । जिस समय तैजस और कार्मण शरीरों का वर्तमानमें सम्बन्ध हो रहा है, उस सम्बन्धसे पहिले भी उस आत्माका पूर्ववर्त्ती तैजस और कार्मण शरीरोंके साथ सम्बन्धका सद्भाव था । और उससे भी पहिले तीसरे उन तैजस कार्मण शरीरों के साथ आत्माका सम्बन्ध था । इसी प्रकार अनादिकाल के जवकी अनादिकालसे उन तैजस, कार्मण, शरीरोंके सम्बन्धकी सन्तान बन रही है । हां, प्रत्येक विशिष्ट विशिष्ट असाधारण किसी तैजस या कार्मणका सम्बन्ध हो जानेसे वही सादिपना उनका व्यवस्थित है ।
ननु कस्यचिन्नानादिसंबंधे तेऽतः परशरीरसंबंधानुपपत्तिरित्याशंकायामिदमाह ।
यहां कोई शंका करता हैं कि सम्भवतः किसी किसी जीवके वे तैजस, कार्मण, शरीर तो अनादि सम्बन्धवाले नहीं हैं । अतः जिस आत्माके तैजस या कार्मणका सादि सम्बन्ध हुआ है, उस अमूर्त आत्मा इस कारण दूसरे औदारिक आदिक मूर्त शरीरोंके सम्बन्ध होने की असिद्धि हो जावेगी । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री उमास्वामी इस अगले सूत्रको कह रहे 1
सर्वस्य ॥ ४२ ॥
सम्पूर्ण संसारी जीवों के ये दोनों ही शरीर होते हैं । अर्थात् — कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं है जिसे कि वे तैजस कार्मण शरीर प्रवाह रूप करके अनादि कालसे लगे हुये नहीं हों। सभी संसारी जीव कर्मोंसे बंध रहे हैं ।