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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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तिकं पांचभौतिक वा कैश्चिदिष्टं शरीरं मनुष्यतिरश्वा तदौदारिकमेव च, न ततोन्यदिति पचव यथोक्तानि शरीराणि व्यवतिष्ठते सर्वविशेषाणां तत्रांतर्भावात् ।
और ये पार्थिव, जलीय, आदि शरीर विद्यमान हैं तो भी वे इन पांच शरीरोंसे भिन्न होते हुये प्रतीतिक विषयपनको नहीं अनुभव कर रहे हैं। जैसे कि आकाशपर लगा हुआ कमल कोई सद्भूत प्रमेयं नहीं हैं । उसी प्रकार इन औदारिकादि शरीरोंसे भिन्न कोई पृथिवी तत्त्व निर्मित या जलतत्व निर्मित अथवा अकेले तेजो द्रव्यसे निर्मित तथा कोरी वायुसे बने हुये शरीर नहीं जाने जा रहे हैं । तुम वैशेषिकोंने पृथिवीका बना हुआ जो शरीर इन्द्रलोकमें प्रसिद्ध माना है तथा जो सूर्यलोकमें तैजस शरीर कहा है और जो वरुण लोकमें जलनिर्मित शरीर माना गया है एवं वायुलोकमें जीवोंका शरीर जो वायुनिर्मित स्वीकार किया गया है वे तो सब शरीर वैक्रियिक ही हैं । देव और नारकियोंके उपपाद जन्मसे निपजे हुये शरीर वैक्रियिक हुआ करते हैं। हां, जरायुज, मनुष्य, गाय, भैंस, आदिक और अण्डज पक्षी सर्प आदिकोंकी योनिज शरीर तथा गिडार, डांस, वृक्ष आदिकोंका अयोनिज शरीर जो पार्थिव माना गया है वह तो औदारिक ही है। जलकायके जीवोंका शरीर हो रहा सचित्त जल भी औदारिक शरीर है। इसी प्रकार अग्निकायिक जीव और वायुकायिक जीवोंका सचित्त शरीर भी अग्नि और वायुस्वरूप होता हुआ औदारिक शरीर है। जो भी वैशेषिक यों मान बैठे हैं कि मनुष्य और तिर्यचौंका शरीर तो पृथिवी, जल, तेज, वायु, इन चार भूतौका बना हुआ है अथवा इन चारमें आकाशको मिलाकर पांचे भूतोंसे बन रहा मामा है । अर्थात्-मनुष्य और घोडा, हाथी, तोता, मैना, सांप, आदिके शरीरों में कठिन भाग पृथिवकिा है, द्रव भाग जलका है, उदराग्नि या उष्णता तो अग्निका भाग है, उक्त शरीरोंमें वायु भी है, इस कारण चारों धातुओंसे ये शरीर बने हुये हैं । उक्त शरीरोंमें भीतर पोल भी हैं वह आकाशका भाग है, यों पांच भूतोंसे बने हुये ये शरीर किन्हीं वादियों करके इष्ट किये गये हैं। आचार्य कहते हैं कि वह मनुष्य या तिर्यंचोंका शरीर तो हमारे यहां औदारिक शरीर ही माना गया है । उनसे न्यारा कोई शरीर नहीं है। इस कारण आम्नाय अनुसार सूत्रकार द्वारा कहे गये शरीर पांच ही व्यवस्थित हो रहे हैं । शरीरके अन्य सभी भेद प्रभेदोंका उन पांचमें ही अन्तर्भाव हो जाता है।
ननु चौमूर्तस्यात्मनः कथं मूर्तिमद्भिः शरीरैस्संबंधो मुक्तात्मवदित्याशंकामपनदनाह ।
यहां किसीकी शंका है कि मुक्त आत्माके समान अमूर्त हो रहे आत्माका भला मूर्तिवाले शरीरोंके साथ कैसे सम्बन्ध हो जाता है ? अन्यथा मुक्त परमात्माके भी शरीरके साथ सम्बन्ध बन बैठेगा । इस प्रकारकी आशंकाका निराकरण कर रहे श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको कह रहे हैं ।
अनादिसंबंधे च ॥४१॥ वे तैजस और कार्मण शरीर दोनों आत्माके साथ अनादि कालसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं। अर्थात्-मोक्ष होनेके पूर्व कालोंमें अनादि कालसे यह जीव प्रवाह रूप करके कर्मोके साथ बंधा रहनेके