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________________ तत्त्वार्थीचन्तामणिः २२५ शीतस्पर्शविनाशः परस्मादग्निसंयोगादुष्णस्पर्शोत्पत्तिः ततस्तदुपभोक्तुरदृष्टविशेषवशायणुकादि प्रक्रमेण तादृशस्यैवायस्पिडस्योत्पत्तिः । एवं च नायस्पिडे तदवस्थे तेजसोनुप्रवेशोस्ति यतोऽप्रतीघातस्य विधाने निदर्शनीक्रियेतेति । तदयुक्तं, प्रतीतिविरोधात् । स एवायमयस्पिंडस्तेजोव्याप्तः प्रतिभाति यः पूर्वमनुष्णः समुपलब्ध इति प्रतीतेः । परत्र प्रक्रियामात्रस्य जातुचिदप्रतीतेर्न भ्रांतत्वं । सदृशापरोत्पत्तेस्तथा प्रतीतिरिति चेन्न, एकत्वादिवत् । न हि किंचिन्मूर्तमति प्रविशदमूर्त दृष्टं । व्योमदृष्टमिति चेन्न, तत्र मूर्तमति मूर्तेष्वपि तथा प्रसंगात् । तथा च तत्कथंचित्प्रत्यभिज्ञानादेकत्वसिद्धिः। बाधकरहितात्ततस्तत्सिद्धौ कथमयस्पिडेपि प्रत्यभिज्ञानादेकत्वं न सिध्येत् ? न हि तत्र किंचिद्भाधकमस्ति । यदि यहां वैशेषिकोंका मन्तव्य ऐसा होवे कि लोहेके तवेमें अग्नि नहीं घुसती है। किन्तु लाल तपा हुआ तवा एक नया पदार्थ ही उत्पन्न हो जाता है। पहिला तवा रहता ही नहीं है। वह पहिले तवेके नाशकी और नये लोहपिण्डके उत्पादकी प्रक्रिया इस प्रकार है कि तेजोद्रव्यके विशेषसंयोगसे लोहपिण्डके अवयवोंमें पहिले क्रिया उपजती है । क्रिया या अनेक क्रियाओंके उपजजानेके पीछे दूसरे समयमें उन लोहअवयवोंका विभाग हो जाता है। अर्थात्-मिले हुये अवयव उस क्रियाके द्वारा पृथक् पृथक् टुकडे हो जाते हैं । विभागगुण संयोगगुणका नाशक है। अतः पहिले हो रहे संयोगका विभागकरके तीसरे समयमें नाश हो जाता है। उसके भी पीछे संयोगका नाश हो चुकनेपर उस लोहपिण्ड अवयवीका विनाश हो जाता है । स्थूल अवयवोंका भी नाश होते होते परमाणु रह जाते हैं । उसके पीछे उष्णताकी अपेक्षा रखनेवाले अग्निसंयोगसे उन परमाणुस्वरूप लोह अवयवोंमें अनुष्णशीत स्पर्शका विनाश हो जाता है । अर्थात्-वैशेषिकोंने पृथिवीमें अनुष्णाशीत स्पर्श माना है। जब कि लोहा पृथिवी है। अतः उसका स्पर्श अनुष्णाशीत था, अगले क्षणमें अनुष्णाशीत स्पर्शका नाश हो गया। साथमें उन क्रियाओंका भी नाश हो गया। वैशेषिकोंके यहां क्रिया चार क्षणसे अधिक नहीं ठहरती है। पहिले क्षणमें क्रिया हुई दूसरे क्षणमें उसने विभागको किया, तीसरे क्षणमें पूर्व संयोगका नाश, चौथे क्षणमें उसी क्रियासे उत्तरदेश संयोग होकर पांच क्षणमें क्रियाका नाश हो जाता है। पुनः अन्य क्रियायें उत्पन्न होती रहती हैं। यहांतक अवयवी उसके अवयव उसके भी छोटे छोटे अवयव इस ढंगसे लोहपिण्डके परमाणुये हो गये हैं । यों अबतक पूर्वपिण्डका विनाश हो चुका । अब नवीन पिण्डका उत्पाद सुनिये । पुनः दूसरे अग्निसंयोगसे उन परमाणुओंमें नवीनस्पर्शकी उत्पत्ति होती है, उसके पश्चात् उस उष्णलोहपिण्डद्वारा रसोई जीमना, भुरस जाना, आदिका उपभोग करनेवाले जीवोंके विशेष पुण्य, या पापकी अधीनतासे परमाणुओंमें क्रिया होनेसे क्षेत्रसे क्षेत्रान्तररूप होना विभाग उपजाता है । विभागसे अन्य क्षेत्रके साथ हो रहे पूर्वसंयोगका विनाश हो जाता है । पीछे दूसरे परमाणुके साथ संयोग हो जाता है । दो दो परमाणुओंका संयोग 29
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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