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तत्त्वार्थश्लोकवालिके
हो चुकनेपर पीछे यगणुकोंकी उत्पत्ति होजाती है । तीन, तीन घणुकोंसे वहां सब लोह अवयवोंके त्र्यणुक बन जाते हैं । चार चार त्र्यणुकोंके सब चतुरणुक बन जाते हैं, यों पंचाणुक, षडणुक, इस क्रमसे एक वैसे ही अत्युष्ण नवीन लोहपिण्डकी उत्पत्ति हो जाती है । इस प्रकार हम वैशेषिकोंके यहां वैसाका वैसे ही लोहपिण्डके अवस्थित बने रहनेपर तेजोद्रव्यका अनुप्रवेश नहीं माना गया है । जिससे कि अप्रतीघातका विधान करनेमें आप जैनलोग लोहपिण्डमें अग्निके प्रवेशको दृष्टान्त कर सकें। यहांतक वैशेषिक कह चुके हैं । अब आचार्य कहते हैं कि यह कथन युक्तिविरुद्ध है। क्योंकि प्रतीतिओंसे विरोध आता है। यह वही लोहपिण्ड भला तेजोद्रव्यसे व्याप्त हो रहा प्रतिभासला है, जो लोहपिण्ड पहिले अनुष्ण भले प्रकार दीख चुका था, ऐसी बालक, बालिकाओतकको प्रतीति हो रही है। दूसरे वैशेषिकोंके यहां जो उत्पादविनाशकी केवल प्रक्रिया; गढ दी गयी है, उसकी तो किसीको. कभी प्रतीति नहीं होती है । यदि नीचे अग्नि जलानेसे अनुष्ण लोह्म या तांबेका बर्तन टूट फूट जाता तो उसमें का दूध या घी फैल जाता, किन्तु ऐसा नहीं हो रहा है। किन्तु यह. वहीं लोहपिण्ड है, वहका वही बर्तन है, यह प्रतीति हो रही है, जो कि भ्रान्तिस्वरूप नहीं है। यदि यहां वैशेषिक यों कहें कि सदृश ही दूसरे दूसरे लोहपिण्डोंकी उत्पत्ति हो जानेसे तुमको तिसप्रकार " यह वही है " ऐसी प्रतीति हो गयी है, जैसे कि दीपकलिकाओंमें या किसी चूर्ण में यह वही है, यह सादृश्यको कारण मानकर प्रतीति हो जाती है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि घटके एकपन तदेवपन, आदिके समान लोहपिण्डमें एकत्व प्रतीति भी समीचीन है।.. मूर्तिमान् पदार्थोंमें प्रवेश कर रहा कोई अमूर्त पदार्थ नहीं देखा गया है। यदि कोई यहां यों कहें कि अमूर्त आकाश तो मूर्तिमाम् घटादि में प्रवेश कर जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि उस आकाशके मूर्तिमान् होते सन्ते ही घट, पट, आदि मूर्त पदार्थों में भी तिस प्रकारका प्रसंग हो जावेगा । अर्थात्-आकाश मूर्त नहीं है, क्रियावान् भी नहीं है । अतः वह मूर्ती प्रविष्ट नहीं हो सकता है। ( यहांका यह पाठ कुछ अप्रकृतसा दीखता है विशेष बुद्धिमान् पुरुषपूर्वापार संदर्भको ठीक मिला लेवें ) । और तैसा होनेपर कथंचित् एकत्वको विषय करनेवाले प्रत्यभिज्ञानसे एकपनेकी सिद्धि होजाती है, बाधक प्रमाणोंसे रहित हो. रहे उस प्रत्यभिज्ञान द्वारा उस एकप नकी सिद्धि होना मान चुकनेपर लोहपिण्डमें भी एकत्व प्रत्यभिज्ञानसे भला एकत्व क्यों नहीं सिद्ध हो जायगा ? कारण कि वहां भी तो कोई बाधक प्रमाण विद्यमान नहीं है । . स्यान्मतं, तेजोऽयस्पिडे तदवस्थे नानुपविशति मूत्वालोष्ठवदित्येतद्बाधकमिति तदसदेतोः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् सर्वज्ञत्वाभावे वक्तृवादिवत् । न हि किंचिन्मुर्तिमति प्रविशदमूर्त दृष्टं । व्योम दृष्टमिति चेत्, तत्र मूर्तिमतोनुभवेशात्तथा प्रतीतेरवाधत्वादित्यलं प्रसंगेन ।
' यदि वैशेषिक पण्डित " यह वही लोह पिण्ड है " इस प्रत्यभिज्ञानमें बाधकप्रमाण उपस्थित. करते हुये अपना मन्तव्य यों प्रकाशित करें कि लोहपिण्डकी ठीक वैसीकी वैसी ही अवस्था बनी,