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________________ २२१ तत्त्वार्थलोकवार्तिके तस्य कार्यासपिंडेनानेकांताच्छिथिलात्मना । प्रदेशबहुतातारतम्यवस्थौल्यबंधने ॥ ३॥ प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पपनेका तारतम्य ही शरीरोंमें सूक्ष्मपनेके तारतम्यका ज्ञापक हेतु है, इस प्रकार जो नैयायिक समझ बैठे हैं वे खोटी तर्कको धारनेवाले हैं । क्योंकि उस हेतुका शिथिलस्वरूप फूल रहे रुईके पिण्ड करके व्यभिचार दोष हो जाता है । जैसे कि स्थूलपनके बन्धनको साधनेमें प्रयुक्त किये गये प्रदेशबहुतपनेका तारतम्य हेतु रुईसे व्यभिचारी हो जाता है । अर्थात्-जिसमें प्रदेश बहुत होते हैं, वह स्थूल होता है। यह हेतु लोहपिण्डसे व्यभिचारी है। उसी प्रकार जिसमें प्रदेश थोडे होते हैं वह अल्पपरिमाणवाला सूक्ष्म पदार्थ है । इस व्याप्तिका हेतु भी धुनी हुई रुईसे व्यभिचार दोषको धार रहा है । थोडे प्रदेश होनेपर भी शिथिल रुई लम्बे चौडे स्थानको घेर रही है, जब कि बहुप्रदेशी लोहपिण्ड छोटे स्थानमें समजाता है । यथैव प्रदेशबहुत्वतारतम्यमुत्तरोत्तरशरीरेषु स्थूलत्वप्रकर्षे साध्ये निबिडावयवसंयोगपरिणामेनायस्पिडेनानैकांतिकमिति न तत्र स्थूलतातारतम्यं साधयति तथा प्रदेशाल्पत्वतारतम्यमपि पूर्वशरीरेषु न सूक्ष्मतातारतम्यमिति खहेतुविशेषसांनिध्यात् तैजसकार्मणयोरनंतगुणत्वेपि पूर्वकायात्सूक्ष्मपरिणामः सिद्धः सर्वतोप्रतीघातत्वं साधयत्येवायस्पिडे तेजोनुप्रवेशवदिति सूक्तं । न हि तेजसोयस्पिडेन प्रतीपाते तत्रानुप्रवेशो युज्यते । .. ___ जिस ही प्रकार पिछले पिछले शरीरोंमें स्थूलताके प्रकर्षको साध्य करनेपर प्रयुक्त किया गया प्रदेशाके बहुतपनेका तारतम्य रूप हेतु सो अवयवोंके सघन संयोग हो जाना रूप परिणामको धारनेवाले लोहपिण्डकरके व्यभिचारी है, इ. कारण वह हेतु उन उत्तरोत्तर शरीरोंमें स्थूलपनके तारतम्यको नहीं साध पाता.है, तिसी प्रकार प्रदेशोंकी अस्पताका तारतम्य होना रूप ज्ञापक हेतु भी पूर्व पूर्व शरीरोंमें सूक्ष्मताके तारतम्यको नहीं साध पाता है। इस कारण अपने अपने हेतु विशेषोंकी सन्निकटतासे तैजस और कार्मणको अनन्तगुणा होते हुहे भी पूर्वशरीरसे सूक्ष्म परिणाम सहितपना सिद्ध हो जाता है, जो कि सब ओरसे उन दोनोंके अप्रतीघातपनेको साध ही देता है, जैसे कि लोह पिण्डमें तेजोद्रव्यका अनुप्रवेश हो जाता है। तभी तो इस बातको हम पहिली वार्तिकोंमें बहुत अच्छा कह चुके हैं । यदि तेजोद्रव्यका लोहपिण्ड करके प्रतीघात माना जायगा तो ऐसी दशामें वहां लोहेमें अग्निका प्रवेश नहीं हो सकेगा। किन्तु लोहेके तवेमें या पीतल, तांबे के पात्रमें तेजोद्रव्य घुस जाता दीखता है, बिजली तो हजारो मील लम्बे ठोस तारमें घुसी चली जाती है । स्यान्मतं, तेजसः संयोगविशेषादयस्पिडावयवेषु कर्मोत्पद्यते ततो विभागस्ततः संयोगविनाशस्ततोपि तस्यायस्पिडावयविनो विनाशस्ततोप्यौष्ण्यापेक्षादग्निसंयोगात्तदवयवेष्वनुष्णा
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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