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________________ तलाक्सामणिः २२३ amon ततस्तर्हि सूत्रे सर्वतो ग्रहणं कर्तव्यमिति चेत् न, मुख्यास्य प्रतायातस्यात्र विवक्षितत्वात् । कुतः पुनस्तादृशोऽप्रतीघात इति चेत्, सूक्ष्मपरिणामविशेषादयस्पिडे तेजोमकेशरत् । कोई पण्डित आक्षेप करता है कि तैसा होनेसे यानी सर्वत्र अप्रतीघातकी विवक्षा करनेपर तब तो इस सूत्रमें सर्वतः यह पदग्रहण करना चाहिये, जब कि सर्व स्थलोंसे लोकके सभी स्थलोंमें वे प्रतीघातरहित हैं ? आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि मुख्य प्रतीघातकी यहां विवक्षा प्राप्त हो रही है । अतः विना कहे ही " सर्वत्र अप्रतीघात " यह अर्थ कह दिया जाता है। यों थोडी थोडी दूरके स्थानोंमें तो स्थूल औदारिकका भी अप्रतीघात बन रहा है, इससे क्या हुआ ? सूत्रकारको यहां मुख्य प्रतीघातकी विवक्षा हो रही है । तैजस और कार्मण शरीरमें परिपूर्णरूपसे मुख्य प्रतीघात नहीं है । पुनः यहां कोई पूछता है कि क्या कारण है ? जिससे तैजस और कार्मण शरीरका तिस प्रकारका सर्वत्र अप्रतीघात है ? कहीं भी इनको कोई रोक नहीं सकता है ? यों कहनेपर तो आचार्य समाधान करते हैं कि लोहपिण्डमें जैसे तेजोद्रव्यका अनुप्रवेश हो जाता है, तवेमें नीचेसें अग्नि घुसकर ऊपरकी रोटीमें संयुक्त हो जाती है, उसी प्रकार सूक्ष्म विशेषपरिणाम होनेसे उनका कही भी प्रतीघात नहीं होता है । भावार्थ-घडेमें भीतर पानी भर देनेपर कुछ आर्द्रता ऊपर झलक आती है । पाषाणमें तेल घुस जाता है । ताडपीनका सेल चर्ममें प्रविष्ट होकर परली ओर निकल जाता है । चौमासेकी सील सात सन्दूकोंके भीतर घुस जाती है। जब स्थूलपरिमाणवाले पदार्थ भी नियत पदार्थोंमें अन्तःप्रविष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्मपरिणति विशेष हो जानेसे तैजस और कार्मण शरीर सर्वत्र अप्रत्याहत चले जा सकते हैं । जैनसिद्धान्तमें कारण अनुसार कार्यव्यवस्था मानी गयी है। कोई पोल नहीं है । जिस पदार्थमें जैसा जैसा जहां जहा प्रतीघात, अप्रतीघात, होनेका परिणामविशेष होगा, वह पदार्थ वहांतक प्रतीघातवाला या अप्रतीघातवाला माना जायगा। दीपक या मसालका प्रकाश चर्म, मांस, कपडा, पत्र, आदिको भेदकर भीतर नहीं घुस सकता है। किन्तु " ऐक्सरे” नामक यंत्रद्वारा बिजलीका प्रकाश तो चर्म आदिको पार कर जाता है । खदरमेंसे पानी छन जाता है, प्रकाश नहीं । किन्तु कांचमेंसे प्रकाश निकल जाता है, पानी नहीं। ये त्वाः, पूर्व पूर्व सूक्ष्मं युक्तं प्रदेशतोल्पत्यादिति तान् प्रत्याह । जो भी कोई विद्वान् यों कह रहे हैं कि परमाणुओंकी संख्याके अल्प, अल्प, होनेस तो पहिले पहिले शरीरोंको सूक्ष्म कहना युक्त है। उनके प्रति तो श्री विद्यानन्द आचार्य यों समाधान कहते हैं । प्रदेशतोल्पतातारतम्यं कायेषु ये विदुः । सूक्ष्मतातारतम्यस्य साधनं ते कुतार्किकाः ॥२॥
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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