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तत्त्वावलोकवार्तिके
प्रतीघात शद्वका अर्थ अन्य मूर्त पदार्थोस टकरा कर व्याघातको प्राप्त हो जाना है । वह गिर जाना या छिन्न भिन्न हो जाना अथवा रुक जाना कोई सा भी प्रतीघात जिन शरीरोंके विद्यमान नहीं है वे तैजस और कार्मणशरीर " अप्रतीधात " माने जाते हैं। कोई सविनय प्रश्न करता है कि यह अप्रतीघात किस कारणसे है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तरमालिकको कहते हैं ।
सर्वतोप्यप्रतीपाते परिणामनिमित्ततः। न सर्वतो प्रतीपाते परिणाम विशेषतः ॥१॥
तैजस और कार्मणशरीरका परिमाण इस ढंगका सूक्ष्म है जिस कारण कि निमित्तसे वे तैजस, कार्मण शरीर सभी स्थानोंमें प्रतीघात रहित हैं, परिणाम विशेष होनेसे । दूसरे वैक्रियिक और आहारक शरीर सर्वतः प्रतीघातरहित नहीं हैं। अर्थात्-चौक्रयिक शरीर त्रसनालीमें यथायोग्य कुछ योजन या डेड राजू चार, पांच, छह, राजू, तेरह राजूतक गमन करनेकी शक्ति रखता है । आहारक शरीर ढाई द्वीपमें सर्वत्र अप्रत्याहत जा सकता है, इससे बाहर जानेपर वैक्रियिक या आहारक शरीर टूट, फूटकर, नष्ट भ्रष्ट हो जायगा, जा ही नहीं सकेगा । किन्तु तैजस और कार्मण शरीरकी परिणति उन सूक्ष्म विशेषताओंको लिये हुये हैं, जिनसे कि वे लोकमें सर्वत्र विना रोक टोकके अक्षुण्ण चले जाते हैं।
वैक्रियिकाहारकयोरप्यपतीघातत्वमिति न मंतव्यं, सर्वतोऽप्रतीघातस्य तयोरभावात् । न हि वैक्रियिकं सर्वतोऽप्रतीपातमाहारकं वा प्रतिनियतविषयत्वात्तदप्रतीघातस्य । तैजसकामणे पुनः सर्वस्य संसारिणः सर्वतोपतीघाते ताभ्यां सह सर्वत्रोत्पादान्यथानुपपत्तेः ।
___ कोई मान बैठा है कि स्थूल औदारिक भले ही पर्वत, वज्रपटल, आदिसे रुक जावे, किन्तु वक्रियिक या आहारक शरीरका तो पर्नत, भित्ति, सूर्य, विमान, आदिमें ( से ) कोई प्रतीघात नहीं होता है । अतः तैजस, कार्मणके समान वैक्रियिक और आहारकको भी प्रतीघातरहितपना है । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिये । क्योंकि लोकमै सब ओरसे सभी स्थलों में उनके अप्रतीघातका अभाव है । देखिये, बैक्रियिक अथवा आहास्क शीर सर्व स्थलों में प्रतीघात रहित नहीं हैं। क्योंकि उनका अप्रतीघात तो प्रतिनियत स्थानोंमें मर्यादित हो रहा है। त्रसनालीके बाहर स्थायर लोकमें आहारक या बैक्रियिक शरीर नहीं जा पाते हैं । किन्तु फिर सम्पूर्ण संसारियाक तैजस और कार्मण तो सभी स्थानोंसे सभी स्थलों के लिये जाने, आने, में प्रतीघातरहित हैं। क्योंकि उन तैजस
और कार्मण शरीरके साथ इस संसारी जीव की सभी स्थलोंमें उत्पत्ति होना अन्यथा यानी तेजस कार्मण को अप्रतीघात माने विना बन नहीं सकता है । जबलक संसार है तबतक तैजस और कार्मण तो लगे ही रहेंगे । इनके साथ ही जीवका आना, जाना, हो सकता है ।