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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कहे जा चुके जरायुज आदिक और देवनारक जीवोंसे अन्य बच रहे जीव यहां शेष जीव माने जाते हैं उन शेष जीवोंके ही सम्मूर्छन जन्म मानना समुचित है। क्योंकि उनमें गर्भ और उपपाद जन्मकी प्रतीति होना सर्वदा नहीं बनता है । यहां कोई पुनः शंका उठाता है कि तब तो जीवोंको अच्छा उपजानेवाले पसीना, कीच, आदिसे उपजते हुये स्वेदज, लट, जुआं, डांस, आदि और भूमिको फोडकर निकले हुये उद्भिज्म, वृक्ष गुल्म आदि जीवों का भिन्न चौथा जन्मका प्रकार न्यारे सूत्र द्वारा उमास्वामी महाराज करके कहना चाहिये ? इस प्रकारकी आशंकाका निराकरण करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामी अगली वार्तिकको कहते हैं ।
तथा संस्वेदजादीनामपि संमूर्छनं मतं ।
जन्मेति नापरो जन्मप्रकारो सूत्रितोस्ति नः ॥२॥ तिन एकेंदियादि शेष जीवोंके समान उस ही प्रकारसे स्वेदज आदिक जीवोंके भी सम्मूर्छन जन्म माना गया है । इस कारण जन्मके तीन प्रकारोंसे अन्य कोई चौथा, पांचवा, प्रकार हमारे जैन सिद्धान्समें नहीं है । अतः सूत्रद्वारा हमने सूचित नहीं किया है।
इत्येवं पंचभिः सूत्रः सूत्रितं जन्मजन्मिनां ।
भेदप्रभेदतचित्यं युक्त्यागमसमाश्रयं ॥३॥
यहांतक इस प्रकारके " संमूर्छन गर्भोपपादा जन्म, सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तघोनयः, जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः, देवनारकाणामुपपादः, शेषाणां संमूर्छनं " इन पांच सूत्रों करके जन्मवाले संसारी प्राणियोंका सूचन किया जा चुका है । युक्तिप्रमाण और आगम प्रमाणका अच्छा आश्रय रखते हुये विद्वानों करके भेद, प्रभेद, रूपसे उस जन्मका अन्य भी परामर्श कर लेना चाहिये । सूत्रमें तो संक्षेपसे ही प्रमेय कहा जा सकता है।
___ अथ जीवस्य कति शरीराणीत्याह ।
हे करुणानिधान ! अब यह बताओ कि संसारी जीवके कितने शरीर होते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको स्पष्टरूपसे कह रहे हैं। औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि।३६।
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, और कार्मण ये पांच शरीर हैं ।
शरीरनामकर्मोदये सति शीर्यंत इति शरीराणि । शरणक्रियात्र व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रवृत्ति निमित्तं तु शरीरनामकर्मोदय. एवोदितः शरीत्वपरिणामः न पुनरर्थातरभूतशरीरत्वसामान्यं तस्य विचार्यमाणस्यायोगात् ।