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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक
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गर्भ अथवा संमूर्छनमें जन्म लेनेके लिये प्रसंग प्राप्त नहीं हो पाते हैं। तिस कारण उन देवनारकियोंके उपपादके सिवाय अन्य जन्मोंकी च्युतिकी सिद्धि हो मानेसे उपपाद जन्म ही नियत हो जाता है। इस सूत्रक विधेय दलमें एवकार लगानेकी आवश्यकता नहीं है, जैसे कि पूर्व सूत्रके विधेय दलमें एवकार लगानेकी आवश्यकता नहीं पड़ी थी।
नन्वैवं जरायुजादीनां देवनारकाणां च संमूर्छनेपि प्रसक्तिरित्याख्यातं प्रतिघ्ननाह ।
यहां शंका है कि जब गर्भ एव, उपपाद एव, इस प्रकार दोनों सूत्रोंके विधेय दलमें एवकार नहीं लगाया गया है तब तो जरायुज, अण्डज, आदि जीवोंका और देव नारकियोंका संमूर्छन जन्म होनेमें भी प्रसंग आता है । भले ही उक्त दोनों सूत्रोंके उद्देश्य दलमें एवकार लगाकर जरायुजादिकोंके उपपाद जन्मका निराकरण कर दिया जाय और देवनारकियोंके गर्भजन्मका निवारण कर दिया जाय । किन्तु इन जीवोंके सम्मूर्छन जन्मका निवारण उन एवकारोंसे हो नहीं सकता है । इस प्रकारके भाषितका साटोप खण्डन करते हुये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं ।
शेषाणां संमूर्छनं ॥ ३५॥ गर्भ जन्मवाले जीव और उपपाद जन्म धारनेवाले जीवोंसे. शेष बच रहे एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके सम्मुर्छन जन्म होता है।
शेषाणामेघ संमूर्छनमित्यवधारणीयं । के पुनः शेषाः कुतो वा तेषामेव संमूर्छनमित्याह ।
पूर्वोक्त दो सूत्रोंके समान इस सूत्रके उद्देश्य दलमें भी एवकार लगाकर शेष जीवोंके ही सम्मछन जन्म होता है यों अवधारण कर लेना चाहिये । कोई जिज्ञासु पूंछता है कि महाराज बताओ, वे शेष जीव फिर कौन हैं ? और क्या कारण है कि उनके ही सम्मूर्छन जन्म माना गया है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्त्तिकको कहते हैं।
निर्दिष्टेभ्यस्तु शेषाणां युक्तं संमूर्छनं सदा।
गर्भोपपादयोस्तत्र प्रतीत्यनुपपत्तितः ॥१॥
निर्दिष्ट कर दिये गये जरायुज आदिकोंसे और देवनारकोंसे अतिरिक्त शेष बच रहे एकेन्द्रि आदि जीवोंके सर्वदा सम्मूर्छन जन्म होना ही युक्तिपूर्ण है । क्योंकि उन एकेन्द्रियादि जीवोंमें गर्भ जन्मऔर उपपाद जन्मकी प्रतीति हो जाना सिद्ध नहीं है।
उक्तेभ्यो जरायुजादिभ्यो देवनारकेभ्यश्च अन्ये शेषास्तेषामेव संमूर्छनं युक्तं सदा गर्भोपपादयोस्तत्र प्रतीत्यनुपपत्तेः । तर्हि संस्वेदजादीनां जन्मप्रकारोन्यः सूत्रयितव्य इत्याशंकामपसारयन्नाह ।