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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
नामकर्मकी उत्तरप्रकृतियोंमें गिनाये गये शरीर नामक कर्मका उदय होनेपर जो छिदने, भिदनेवाले पिण्ड बन जाते हैं, इस कारण ये पांच शरीर कहे जाते हैं। यहां शरीर शब्दमें शरण क्रिया तो व्याकरण द्वारा शब्दकी साधुता प्रतिपादक व्युत्पत्ति करनेका ही निमित्त है। रूदौ क्रिया व्युत्पत्यथैव, किन्तु प्रवृत्तिका निमित्त कारण तो शरीर नामक अतीन्द्रिय हो रहे नामकर्मका उदय ही कहा गया है, जो कि जैनसिद्धान्त अनुसार शरीरपना स्वरूप परिणाम है । जैनसिद्धान्तमें पौगलिक शरीरसे सर्वथा भिन्न हो रहा नित्य एक और अनेकमें समवेत ऐसा शरीरत्व नामका सामान्य ( जाति ) नहीं माना गया है। क्योंकि उस वैशेषिकोंके यहां माने गये सामान्यका यदि विचार चलाया जाय तो उसकी सिद्धि होनेका योग नहीं बैठता है । भावार्थ-शू हिंसायाम् धातुसे शरीर शद्ध बनता है इसका अर्थ छिदना, भिदना, पिटना, नष्ट हो जाना है। यदि शद्बकी निरुक्तिको ही लक्षण मान लिया जाय तो घट, पटमें अतिव्याप्ति हो जायगी। अतः रूढि शद्बोंमें धात्वर्थरूप क्रिया केवल व्युत्पत्ति के लिये ही मानी गयी है। वस्तुतः लक्षणका बीज तो शरीर नाम कर्मका उदय ही है। वैशेषिकोंने शरीरत्वको एक विशेष जाति माना है, जो कि व्यापक, नित्य, एक और अनेकोंमें समवाय सम्बन्ध द्वारा वर्तती है । पश्चात् संकरदोष आजानेके भयसे " चेष्टाश्रयत्वं शरीरत्वं " चेष्टाश्रयपनको शरीरत्व मानकर सखण्डोपाधि निर्णीत किया है । किन्तु जैन सिद्धान्त अनुसार सदृश परिणाम ही सामान्य है, जो कि शरीरसे अभिन्न है । सदृश परिणामास्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गात्ववत् (परीक्षामुख)।
केन पुनः कारणेन जन्मांतरं शरीराण्याहुरित्युच्यते ।
किसीका प्रश्न है कि महाराजजी! यह बताओ कि किस कारणसे अन्य जन्म लेनेको प्राणियोंके शरीर कह देते हैं ? ऐसी आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा यों समाधान कहा जाता है।
वयोनौ जन्म जीवस्य शरीरोत्पत्तिरिष्यते । तेनात्रौदारिकादीनि शरीराणि प्रचक्षते ॥ १॥
अपने अपने योग्य योनिमें जीवका जन्म लेना ही यहां शरीरकी उत्पत्ति मानी जाती है । कारण औदारिक, वैक्रियिक, आदिक शरीर हैं यों आचार्य महाराज बढिया ढंगसे स्पष्ट कह देते हैं।
औदारिकादिशरीरनामकर्मविशेषोदयापादितानि पंचैवौदारिकादीनि शरीराणि जीवस्य यदुत्पत्तिः स्वयोनौ जन्मोक्तं, न हि गतिनामोदयमानं जन्म, अनुत्पन्नशरीरस्यापि तत्मसंगात् ।
नामकर्मकी उत्तर प्रकृति शररिसंज्ञक है । उस शरीर प्रकृतिके उत्तर भेद १ औदारिक शरीर नामकर्म २ वैक्रियिक शरीर नामकर्म ३ आहारक शरीर नामकर्म ४ तैजस नामकर्म और ५ कार्मण नामकर्म, ये पांच हैं । आहार वर्गणाको उपादान कारण मानकर और औदारिक नामकर्म, वैक्रियिक नामकर्म, आहारक नामकर्म, इन पौगलिक अतीन्द्रिय प्रकृतियोंको अंतरंग निमित्त पाकर व्यक्त, अव्यक्त,