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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २०१ mameroo nmovisennnn .. सामान्य रूपसे जन्मका एक भेद ही है। विशेषतया सैकडों, हजारों, जन्मके भेद हैं। हां, कतिपय भेदों करके ही संग्रह करनेसे जीवके सम्मूर्छन आदिक तीन जन्म कहे गये हैं । यद्यपि दूसरे दूसरे भी जन्मके विशेष भेद विद्यमान हैं, किन्तु उन विशेष भेद, प्रभेदोंका, इन तीन जन्मोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है । अतः अतिरिक्त प्रकारोंके माननेकी आवश्यकता नहीं है। संस्वेदोद्भेदादयः परे जन्मभेदाः संमर्छनात् तेषां तत्रैवांतर्गमनात् । भेदेन तु संगृह्यमाणं जन्म त्रिविधं व्यवतिष्ठते संमूर्छनादिभेदः पुनर्जीवस्य तत्कारणकर्मभेदात्, सोपि स्वनिमित्ताध्यवसायभेदादिति प्रतिपत्तव्यं । __लट, डांस, जुआं, आदिक जीव पसीनासे उत्पन्न हो जाते हैं, इनका स्वदेज जन्म कहा जाता है । वृक्ष, वेलि, आदिक उद्भिज्ज हैं । शरीरमें पुष्पमाला पहिननेसे पुष्पोंके रूप आदिकी परावृत्ति हो जाती है । अतः अनुमान किया जाता है कि ऊष्मा या स्वेद निकलता रहता है, जिससे कि जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है तथा भूमिको भेद कर ऊपर निकल आये उद्भितसे जन्म लेनेवाले वृक्ष, घास, आदि हैं । इस प्रकार संस्वेद, उद्भेद, आदिक दूसरे भी जन्मके भेद हैं। किन्तु समन्तात् मूर्छन, होनेसे उन अतिरिक्त प्रकारोंका उन तीन जन्मोंमें ही अन्तर्गमन हो जाता है। हां, भेदकरके संग्रह किये जा रहे जन्म तो तीन प्रकारके ही व्यवस्थित हो रहे हैं । हां, फिर जीवके सम्मूर्छन आदिक जन्मभेद तो उनके कारण कर्मोंके विशेष भेदोंके अनुसार हो जाते हैं और वह कर्मोंका भेद भी अपने निमित्त कारण हो रहे कषायोंके अध्यवसाय स्थानोंके भेदसे बन बैठता है । भावार्थ-जीवोंके परिणाम असं ख्यात लोक प्रमाण हैं । उनको निमित्त पाकर कर्मबन्धोंके असंख्याते विकल्प हो जाते हैं। उन काँकै फल अनुसार सम्मूर्छन आदिक जन्मके तीन प्रकार हो जाते हैं । विशेषतया विचारनेपर उन्हीं कोके अनुसार संख्यात और असंख्यात भी जन्मके प्रकार हैं । जो कि पूर्णरूपसे श्रुतज्ञान या केवल ज्ञानद्वारा गम्य हैं । इस प्रकार समझ लेना चाहिये। .. तद्योनिप्रतिपादनार्थमाह। उन जन्मोंके योनिस्थानोंकी प्रतिपत्ति कराने के लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं। सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः॥३२॥ - सचित्त १ शीत २ संवृत ३ और इनसे इतर अर्थात्-अचित्त ४ उष्ण ५ विवृत ६ तथा इनके मिले हुये यानी सचित्तआचित्त ७ शीतोष्ण ८ सम्वृत विवृत ९ ये नौ. उन जन्मोंकी एक एककी योनियां हैं। अर्थात्-सचित्त आदि स्थल विशेषोंमें जीव उन तीनों जन्मोंको यथायोग्व धारते हैं। 28
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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