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तत्त्वावलोकवार्तिके
अर्थात्-कोटि पूर्ववर्षकी उत्कृष्ट है । किन्तु गर्भजन्मवाले मनुष्यकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है और उपपाद जन्मवाले देव, नारकियोंकी आयु तेतीस सागर उत्कृष्ट है। जिनमें कि असंख्याते वर्ष कौनेमें पडे हुये हैं। उपपाद जन्मवाले की जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है और गर्भजन्मवालोंकी जघन्य आयु कुछ बडा अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु सम्मूर्च्छन जीवों की जघन्य आयु नाडीगति कालके अठारहमें भाग है । अतः अल्पकालतक जीवनेवाले विचारे सम्मूर्छन जन्मवालोंका आदिमें ग्रहण करना उचित है । तीसरी बात यह है कि गर्भ और उपपाद जन्मके कार्य और कारणका प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है । किन्तु उस सम्मूर्छन जन्मके कार्यकारण दोनों का बहिरंग इन्द्रियों से प्रत्यक्ष हो भी जाता है। सम्मूर्छन शरीरके कारण गले सडे पदार्थों या बीज, शाखा, आदिका लोकमें प्रत्यक्ष हो रहा है । तथा उनके कार्य बन गये लट, गिराड, अंकुर आदिका भी प्रायः प्रत्यक्ष हो जाता है । उस सम्मूर्छनके पश्चात् गर्भका ग्रहण है । क्योंकि सम्मूर्छनकी अपेक्षा अधिक बढे हुये कालमें गर्भजन्मकी निष्पत्ति होती है । सम्मूर्छन शरीर तो अन्तर्मुहूर्तमें भी बन जाता है। किन्तु गर्भके लिए चिरैय्या मुर्गी छिरिआ, कुत्ती, स्त्री, घोडी भैंस आदिके शरीरमें मास, दो मास, छह मास, नौ मास, बारह मास, तक बननेकी अपेक्षा है। सबके अन्तमें दीर्घकालतक जीवित बना रहना होनेसे उपपादका ग्रहण किया है। वे सब इस जीवके जन्म हैं, यह विश्वास रखना चाहिये।
संमूर्छनादिभेदात् जन्मभेदे वचनभेदप्रसंग इति चेन्न, जन्मसामान्योपादानात्तदेकत्वोपपत्तेः । ___ यहां किसीकी शंका है कि सम्मूर्छन आदिके भेदसे जब जन्मके तीन भेद हैं, तब तो जन्मशब्दके बहुवचन रूपसे भेद करनेका प्रसंग आता है। अर्थात्-जब जन्मके प्रकार तीन हैं तो " जन्मानि" यों बहुवचन होना चाहिये। तभी सामानाधिकरण्य बनेगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि जाति अर्थमें प्रयुक्त किये गये जन्म शब्द करके जन्म सामान्यका उपादान है । अतः उस जन्मशद्वकी एकवचन रूपसे सिद्धि हो जाती है । सामान्यको कहने में एक वचन कहा जाता है । जैसे कि “ जीवाजीवास्रबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वं ” यहां विधेय दलमें एक वचनान्त तत्त्व शद्बका ग्रहण करना साधु है।
कुतः पुनः संमूर्छनादय एव जन्मभेदा इत्याह ।
स्वामीजी महाराज ! फिर यह बताओ कि समूर्छन आदिक ही जन्मके भेद किस कारणसे.हे। जाते हैं ? अर्थात्-सम्मूर्छन आदिक तीन ही जन्मके प्रकार हैं, अधिक क्यों नहीं हैं ! तथा ऐसे जन्मोंका कारण क्या है सो स्पष्ट कहिये, ऐसी विनीत शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य वार्त्तिकको कहते हैं।
संमूर्छनादयो जन्म पुंसो भेदेन संग्रहात् । सतोपि जन्मभेदस्य परस्यांतर्गतेरिह ॥१॥