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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः 9 . . संमूर्छनगर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ सन्मूर्छन, गर्भ, और उपपाद ये तीन संसारी जीवोंके जन्मके प्रकार हैं । समंततो मूर्छनं शरीराकारतया सर्वतः पुद्गलानां सम्मूर्छनं, शुक्रशोणितगरणाद्गर्भः मातृप्रयुक्ताहारात्मसात्करणाद्वा, उपेत्य पद्यतेस्मिानित्युपपादः । एतेषामितरतरयोगे द्वन्द्वे संमूर्छनस्य ग्रहणमादावतिस्थूलत्वात् अल्पकालजीवित्वात् तत्कार्यकारणप्रत्यक्षत्वाच्च, तदनंतरं गर्भस्य ग्रहणं कालप्रकर्षनिष्पत्तेः, उपपादस्य ग्रहणमंते दीर्घजीवित्वात् । त एते जीवस्य जन्मेति प्रत्येयं । __ तीनों लोकमें ऊपर, नीचे, तिरछे, कहींसे भी चारों ओरसे भी देहके अवयवोंको रच लेना समूर्छन है । पुद्गलोंका सब ओरसे शरीरके आकारपने करके अवयव गढ जाना सन्मूर्छन जन्म है । जैसे कि सडे हुये मल, मूत्र, फल, रोटी, दाल, आदिमें जीव, आकर चारों ओरसे उन्हीं पदार्थोंका शरीर रच लेता है । स्त्रीके उदरमें पुरुषके शुक्र और माताके रक्तका मिश्रण हो जानेसे गर्भ नामका जन्म होता है अथवा माताके द्वारा खाये गये आहारको अपने अधीन करनेसे गर्भ माना जाता है । गर्भमें हाथी, घोडे, बालक, बालिका, तोता, मैना, हिरण, बन्दर, आदिक जीव अपनी माताके खाये हुये आहारको अपने शरीररूप मिलाते रहते हैं । जिन कोमल शय्यास्थान या मकर मुख, आदि स्थानोंको प्राप्त होकर इनमें जन्मा जाय, इस कारण यह उपपाद है । देव या नारकियोंके उत्पत्ति स्थानकी विशेषसंज्ञा उपपाद है । इन सम्मूर्छन, गर्भ, उपपादोंका चाहे कैसे भी आगे पीछे रखकर इतरेतर योग नामक द्वन्द्व समास करनेपर सम्मूर्छन शद्बका आदिमें ग्रहण हो जाता है । कारण कि सम्मूर्छन शरीर अधिक स्थूल है, अर्थात्-हजार योजन ऊंचा कमल, बारह योजन लंबा संख, तीन कोस लंबी गिंजाई, चार कोस लंबा भौरा और हजार योजन लंबा राघव मत्स्य ये सब जीव मोटे सन्मूर्छन शरीरको धार रहे हैं । कमलका क्षेत्रफल सातसौ पचास योजन है । संखका घनफल तीनसौ पेंसठ योजन है । गिंजाईका क्षेत्रफल सत्ताईस योजनके इक्यासी सौ बानवैमे भाग है । भ्रमरका क्षेत्रफल तीन बटे आठ योजन है । स्वयंभूरमण समुद्रमें निवास करनेवाले मत्स्यका वनफल साडे बारह करोड योजन है। इन जीवोंके सम्भूर्छन जन्म है । नारकियोंका वैक्रियिक शरीर अधिकसे अधिक पांचसौ धनुष है। देवोंका भी मूलशरीर पच्चीस धनुषसे अधिक नहीं है, उत्कृष्ट भोगभूमिके भी मनुष्योंका शरीर तीन कोस लम्बा है । यहां कर्मभूमिमें मनुष्य शरीरकी अपेक्षा घोडे, वृक्ष आदिमें जो वृद्धिका तारतम्य है, वही तारतम्य भोगभूमिमें लगाया जा सकता है । अतः गर्भज, और उपपादजकी अपेक्षा सम्मूर्छन शरीर अधिक मोटा है, तथा वैसे भी सम्मूर्छन शरीरकी गढंत गर्भ, उपपादवालोंकी अपेक्षा मोटी है। प्रन्थकार स्वयं " परम्परं सूक्ष्मं " आगे कहनेवाले हैं । दूसरी बात यह है कि गर्भजन्मवाले और उपपादजन्मवाले जीवोंकी अपेक्षा सम्मूर्छन प्राणी अल्पकाल जीवित रहते हैं । देखो, सम्मूर्छन मत्स्यकी आयु सातहजार छप्पनके ऊपर सत्रह बिन्दी लगाकर जितनी संख्या होती है उतने वर्ष प्रमाण
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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