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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके जावेगा, किसीका ग्रहण करना अन्यका त्याग करना तो कथंचित् अनित्य पदार्थ के ही सम्भवता है, कूटस्थ नहीं । १९८ परिणामी यथाकालं गतिमानाहरत्यतः । खोपात्तकर्मसृष्टेष्टदेशादीन् पुद्गलान्तरं ॥ ७ ॥ अतः न तो क्षणिक और न कूटस्थ, किन्तु परिणामी जीव गतिमान् हो रहा सन्ता अपने पूर्वजन्मोंमें ग्रहण किये गये कर्मों द्वारा रचे गये इष्ट देश, इष्ट फल, आहार्य पदार्थ आदिकोंका यथासमय आहार कर लेता है तथा अपने योग्य अन्यपुद्गलों का भी आहार कर लेता है । अर्थात्- — एक दो अथवा तीन समयोंको टालकर अपने पुण्य, पाप, अनुसार यह परिणामका धारी और देशसे देशान्तरको जानेवाला जीव अनेक आहार कर लेता है । उत्पाद, व्यय, धौव्य, स्वरूप जातिके न्यारे न्यारे पुद्गलोंका इति विग्रहसंप्राप्त्यै गतिर्जीवस्य युज्यते । षड्तिः सूत्रैः सुनिर्णीता निर्बाधं जैनदर्शने ॥ ८ ॥ इस प्रकार शरीरकी भले प्रकार प्राप्ति करनेके लिये संसारी जीवकी गति होना युक्त हो जाता है। श्री अरहन्त देव द्वारा आद्य प्रतिपादन किये गये जैनदर्शनमें अथवा स्वरचित “तत्त्वार्थशास्त्र" नामक जैनदर्शन ग्रन्थमें " विग्रहगत्तौ कर्मयोगः, अनुश्रेणि गतिः, अविग्रहा जीवस्य, विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्भ्यः, एक समयाविग्रहा, एक द्वौ त्रीन् वानाहारकः " इन छह सूत्रों करके श्री उमास्वामी महाराजने जीवकी गतिका बाधारहित अच्छा निर्णय कर दिया है। कोई खटका नहीं रह जाता है । अथैवं निरूपितगतेर्जीवस्य नियतकालात्मलाभस्य षष्ठिकाद्यात्मलाभवत्संभाव्यमानस्य जन्मभेदप्रतिपादनार्थमाह । अब इसके अनन्तर जिस जीवकी गतिका इस प्रकार निरूपण किया जा चुका है, नियत किये गये कालमें आत्मलाभ कर रहे और साठी, चावल, बाजरा, कांगुनी, आदि के आत्मलाभ समान सम्भावना किये जा रहे उस जीवके जन्मभेदों का प्रतिपादन करनेके लिये श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं । भावार्थ - साठी चावल जैसे साठ दिनमें पकते हैं, न्यून अधिक समय नहीं, इस प्रकार कई, धान्य और अनेक फलोंके परिपाकका समय नियत है । गायें, भैंसे, तथा 1 किन्हीं किन्हीं स्त्रियोंके गर्भधारणका समय भी नियमित रहता है । उसी प्रकार जीव भी नियत कालमें अपने उत्पत्ति क्षेत्रको प्राप्त कर लेता है। वहां जाकर जीवके कितने प्रकार जन्म होते हैं ? निर्णायक सूत्र यह है । इसको अब समझियेगा । उसका
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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