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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः संपति क्षणिकायेकांतव्यवच्छेदेन स्याद्वादपक्ष एव विग्रहगतिर्जीवस्य संभवतीत्याह । अब इस समय क्षणिकपन, नित्यपन, आदि एकान्त पक्षोंके व्यवच्छेद करके स्याद्वाद पक्षमें ही जीवकी विग्रह गति होना सम्भवता है, इस रहस्यको श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिमवार्तिकों द्वारा स्पष्ट खोल कर कहते हैं। क्षणिकं निष्कियं चित्तं स्वशरीरप्रदेशतः। । भिन्नं चित्तांतरं नैव प्रारभेत सविग्रहं ॥४॥ सर्वकारणशून्ये हि देशे कार्यस्य जन्मनि । काले वा न कचिज्ज्ञातुमस्य जन्मन सिद्ध्यति ॥ ५॥ पहिले क्षणमें उत्पन्न होकर दूसरे क्षणमें समूल चूल नष्ट हो गया क्रियारहित क्षणिक चित्त तो अपने शरीर प्रदेशसे भिन्न दूसरे शरीरसहित चित्तको नहीं उत्पन्न कर सकेगा । सम्पूर्ण कारणोंसे शून्य हो रहे देशमें अथवा कारणविकल कालमें यदि कार्यका जन्म माना जायगा तब तो कहीं भी देश या कालमें इस कार्यका जन्म नहीं जाना जा सकता है। अतः किस कारणसे किसका जन्म हुआ ? यो कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं हो सकता है । अर्थात्-बौद्ध आत्मद्रव्यको क्षणिक, निष्क्रिय, अणु, विज्ञान स्वरूप मानते हैं। पहिले समयका चित्त सर्वथा नष्ट हो जाता है। दूसरे समयमें सर्वथा नवीन चित्त उपजता है। उनके यहांकी यह दशा बालक, युवा, वृद्ध, अवस्थाओंमे भी घटना कठिन है । क्षणिक चित्त जन्मान्तरमें जाकर उपज जाय, यह तो असम्भव ही है । बौद्ध तो बाणका भी देशांतरमें पहुंच जाना नहीं मानते हैं। पूर्व प्रदेशोंपर स्थित हो रहा बाणस्वरूप अवयवोंकी राशि सर्वथा नष्ट हो जाती है। अगले प्रदेशोंपर दूसरे समयमें अन्य ही बाण उपजता है। यही उत्पादविनाशका क्रम लक्ष्यदेशकी प्राप्ति तक बना रहता है । वहका वही बाण लक्ष्यतक नहीं पहुंच पाता है । बौद्धोंको असत्के उत्पाद और सत्के विनश जानेका डर नहीं है । घूमते हुये चाकमें भी वे क्रियाको न मानकर प्रत्येक प्रदेशपर नवीन नवीन चाकका उत्पाद विनाश स्वीकार करते हैं । ऐसा सिद्धान्त माननेपर निष्क्रिय चित्त भला जन्मान्तरमें जाकर दूसरे चित्तको नहीं उत्पन्न करा सकता है । अतः बौद्धोंके यहां विग्रहगति नहीं सम्भवती है। कूटस्थोपि पुमानैव जहाति प्राच्यविग्रहं । न गृह्णात्युत्तरं कायमनित्यत्वप्रसंगतः ॥ ६॥ सर्वथा नित्यपक्ष लेनेपर कूटस्थ: आत्मा भी पूर्वजन्मके शरीरको नहीं छोड पाता है और उत्तरभवसम्बन्धी कायको नहीं ग्रहण कर सकता है । क्योंकि यों तो अनित्यपनेका प्रसंग हे
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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