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________________ तत्रार्थ लोकवार्त घ्याघात 1 सम्भावना ही नहीं है । क्योंकि आहारकशरीर नामक नामकर्मका उदय होनेपर असंयम या गूढविषयोंमें उपजे हुये सन्देहको दूर करने के लिये छठे गुणस्थानवर्त्ती किसी ऋद्धि प्राप्त मुनि ध्यान करते समय आहारक शरीर निपजता है । अधिकसे अधिक चौथे गुणस्थानमें हो रही विग्रहगतिकी दशामें आहारक शरीरके उपजनेकी योग्यता प्राप्त नहीं है । अतः उस समय आहारक शरीरका प्रहण नहीं है । तथा औदारिक, वैक्रियिक शरीरोंका ग्रहण करना भी असम्भव है । क्योंकि है । मोडा लेते समय आहारक्रिया कथमपि नहीं हो सकती है । इसी प्रकार छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल द्रव्य ग्रहणका भी व्याघात है । अर्थात् —– जैसे कि कोई बहुत पिट रहा या अत्यधिक परिश्रम कर रहा अथवा परवश अधिक दौड रहा मनुष्य खाना पीना भूल जाता है। उसी प्रकार विग्रह गतिमें नोकर्म आहारका व्याघात है । उस समय तो फिर आत्मा एक मोडा लेनेपर एक समयमें अथवा दो मोडेवाली गतिमें दो समयतक तथा तीन मोडेवाली गतिमें तीन समयतक अनाहारक रहता है। फिर चौथे समयमें भी अनाहारक नहीं है । आहार अवश्य कर लेता है, इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य बार्त्तिकों द्वारा कह रहे हैं कि b १९६ एक समयमात्मा द्वौ त्रीन् वा नाहारयत्ययं । शरीरत्रयपर्याप्तिप्रायोग्यान् पुद्गलानिमान् ॥ १ ॥ चतुर्थे समयेवश्यमाहारस्य प्रसिद्धितः । ऋज्वामिषुगतौ प्राच्ये पुंसः संसारचारिणः ॥ २॥ द्वितीये पाणिमुक्तायां लांगलायां तृतीयके । यथा तद्वत्त्रिवत्रायां चतुर्थे विग्रहग्रहः || ३ || यह संसारी जीव एक समयतक या दो समयतक अथवा तीन समयतक इन तीन शरीर और छह पयाप्तियों के स्वयोग्य होरहे नोकर्मवर्गणास्वरूप पुद्गलोंका आहार नहीं कर पाता है। चौथे समयमें अवश्य ही आहारकी सिद्धि होजाती है । धनुषपरसे फेंक दिये गये बाणकी गतिके समान सरल (सीधी ) ऋजुगतिमें तो इस संसारभ्रमण करनेवाले जीवका पूर्वसमयमें ही आहार होजाता है । पूर्वभवका वियोग, उत्तरभवके प्रति गमन, वहां जाकर नोकर्मवर्गणाओं का आहार करलेना और पर्याप्तियोंका कार्य प्रारंभ होजाना ये सब कार्य एक समयमै ही सम्पन्न होजाते हैं । मुडे हुये हाथके समीन एक मोडेवाली पाणिमुक्ता नामकी गतिमें तो दूसरे समयमें जीवको आहारकी प्राप्ति होजाती है । या सिंहपुच्छके समान दो मोडेवाली लांगलिका गतिमें जैसे तीसरे समय में नोकर्म आहारकी प्राप्ति हो जाती है उसीके समान तीन मोडेवाली गोमूत्रिका गतिमें चौथे समययें जाकर शरीरका प्रण किया जाता है ।
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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