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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः एकं द्वौ त्रीन् वानाहारकः ॥ ३० ॥ एक, दो, तीन, मोडेवाली गतियोंमें यह संसारी जीव यथाक्रमसे एक या दो अथवा तीन समयतक अनाहारक रहता है । अर्थात् कार्माण काययोगद्वारा केवल आयुरहित सप्तविध कर्मों का.. ही ग्रहण करता रहता है। नोकर्मका ग्रहण नहीं कर पाता है। वहां पहुंचकर जन्म लेनेके अगले समय में आहारक बनता है । उसके पहिले एक, दो, तीन, समयतक वह जीव आहारी नहीं है । १९५ एकं वा समयं द्वौ वा समयौ त्रीन् वा समयाननाहारक इति संप्रत्येयं प्रत्यासत्तेः समयस्याभिसंबधात्, वा शब्दस्य प्रत्येकं परिसमाप्तेश्च । सप्तमी प्रसंग इति चेन्न, अत्यंत संयोगस्य विवक्षितत्वात् । वा शब्दका अर्थ यहां विकल्प है। उसका एक, दो, तीन, प्रत्येकमें परिसमाप्तिसे अन्वय कर देना चाहिये । निकटवर्ती होनेसे । " एकसमयाविग्रहा " इस सूत्रसे अनुवृत्ति कर प्राप्त हुये समय शद्वका यहां तीनोंमें सम्बन्ध हो जाता है । अत: चाहे एक समय अथवा दो समयतक किम्वा तीन समयतक संसारी जीव अनाहारक रहता है, यह पक्का विश्वास रखना चाहिये। यहां किसीकी शंका है कि आहार क्रियाका काल तो अधिकरण है । अतः एक, दो, तीन, इन संख्या वाचक शब्दों में सप्तमी विभक्तीकी प्राप्ति हो जानेका प्रसंग आता है, आचार्य कहते हैं यह तो नहीं कहना। क्योंकि यहां अत्यन्त संयोग विवक्षा हो रही है। जहां अति अधिक संयोग विवक्षित होता है वहां सप्तमीका अपवाद कर द्वितीया विभक्ति कर दी जाती है। 1 कः पुनराहारो नाम येनाहारको जीवः स्यादित्यभिधीयते - त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्य पुद्गलग्रहणमाहारः तदभावाद्विग्रहगतावनाहारकः न हि तस्यामाहारकशरीरस्य संभवः, नाप्यौदारिकवैक्रियिकशरीरयोः षण्णां पर्याप्तीनां व्याघातात् । पुनरात्मैकसमये द्वौ त्रीन् वानाहारको न पुनश्चतुर्थमपीत्याह । कोई पूछता है कि फिर यह बताओ कि आहार भला क्या पदार्थ है ? जिस आहार करके :, कि जीव आहारी हो जावेगा, ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी करके यों उत्तर कहा जाता:है कि औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, इन तीन शरीरों और आहारपर्याप्ति १ शरीरपर्याप्ति २ इन्द्रियपर्याप्ति ३ श्वासत् उवास पर्याप्ति ४ भाषापर्याप्ति ५ मनः पर्याप्ति ६ इन छह पर्याप्तियों के योग्य हो रहे पुद्गलद्रव्यका ग्रहण करना आहार है। यानी जैसे भूख, प्यास, लगनेपर यह जीव पित्त अग्नि द्वारा अन्न, जलका आहार कर लेता है । उसी प्रकार विशेष कर्मोंका उदय होनेपर योग द्वारा यह जीव अतीन्द्रिय नोकर्म वर्गणाओंका आहार करता है । कारण नहीं मिलनेपर विग्रहगतिमें उस आहारका अभाव हो जाने से जीव अनाहारक माना जाता है । उस विग्रहगतिमें तीसरे आहारक शरीरकी तो. 2
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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