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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
हो गया है, उस जीवकी केवल एक समयमें ही लोकके अग्रभागमें प्राप्ति हो जाना बन जाता है। हां, संसारी भी जीवकी. पूर्वशरीरका परित्याग करके दूसरे भवके शरीरान्तरको प्राप्त करानेवाली ऋजु-गति भी एक समयवाली ही है । तिस प्रकारका राजुओंतकका लम्बा उछलनेके उपयोगी वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम जिस जीवको भले प्रकार प्राप्त हो गया है उसको एक ही समयमें लोकान्तमें वर्त्त रहे शरीरकी भी प्राप्ति हो जाना घटित हो जाता है । अर्थात्-ऊर्च लोकके तनुवातवलयमें स्थित बात कायिक जीव मरकर उसी समय अधोलोकके वातवलयमें चौदहराजू नीचे जन्म ले लेता है या नीचेके वातवलयका जीव चौदह राजू ऊपर जाकर ऊपरके वातवलयमें उसी समय जनम जाता है। सातों पृथिवियोंमें दक्षिणकी ओर. मरकर पृथिवीकायिक जीव उसी समय सात राजू चल सातों पृथिवियोंमें उत्तरकी ओर जन्म ले लेता है। क्योंकि लोक सर्वत्र दक्षिण उत्तर सात राजू मोटा है। कोई भी एकेंद्रिय जीव एक ओरसे दूसरी ओर एक समयमें ऊंचा, नीचा, तिरछा, सीधा सात राजू गमन कर जाता है । उतने अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंको धार रहा उनके वीर्यगुणका विकास हो रहा है। सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य ज्ञानमें अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं और अनन्त चतुष्टय धारीके केवलज्ञानमें भी अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं । हां, यह अनन्त उस अनन्त संख्यासे अनन्तानन्तगुणा बडा है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवके जघन्य वीर्य गुणमें अनन्त शक्त्यंश हैं और अनन्तचतुष्टयधारी जीवन्मुक्त या मुक्तजीवके भी वीर्य गुणमें भी अनन्तानन्त शक्त्यंश वर्त रहे हैं। भले ही वे पहिले अंशोंसे अनन्तानन्त गुणे अधिक हैं । एकेन्द्रिय जीव भी चौदह राजू ऊपर या नीचेतक गमन करनेकी शक्तिको रक्षित रखता है । पूर्वभव सम्बन्धी मरण और वहांसे उत्तरभवके लिये चौदह राजूतक गमन करना तथा वहां जाकर नवीन शरीरका ग्रहण कर लेना ये सब एक ही समयमें हो जानेवाले कार्य हैं। हां, पहिले पीछे होते हैं । किन्तु समयभेद नहीं है एक समयमें भी असंख्यातासंख्यात शक्त्यंश हैं। तिस कारणसे सम्पूर्ण भी कुटिलतारहित गतियां एक समयमें ही निष्पन्न कर ली जाती हैं, यह सिद्धान्त बन चुका है। साथमें विना कहे ही सामर्थ्यसे यह भी सिद्ध हो चुका है कि एक मोडेवाली गति में दो समय घिरते हैं, दो मोडेवाली गति तीन समयमें संपादित होती है, तीन मोडेको धारनेवाली गति 'तो चार समयमें निष्पन्न होती है। ..... यद्येवं सर्वत्राहारको जीवः प्रसक्त इत्याकूतं प्रतिषेधयन्नाह ।
यदि उस प्रकार अविग्रहागतिमें जीव सदा आहारक बना रहता है, यानी पाहले समयमें भी आहार करता हुआ मरा था और अग्रिम समयमें झट वहां पहुंचकर उसी समय नोकर्मका आहार कर लिया, उसी प्रकार सभी एकवक्रा, द्विवक्रा, त्रिवक्रा, गतियोंमें भी जीवको आहारी बना रहनेका प्रसंग प्राप्त हुआ । इस प्रकारके सिद्धांतविरुद्ध कुचेष्टितका निषेध करते हुये श्री उमास्वामी महाराज अग्रवर्ती -सूत्रको स्पष्ट कहते हैं।