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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः गतिरित्यनुवर्तनेन सामानाधिकरण्यात्स्त्रीलिंगनिर्देशः कृतः । एकः समयोऽस्या इत्येकसमया, न विद्यते विग्रहो व्याघातोस्या इत्यविग्रहा ऋज्वी गतिरित्यर्थः । कुतश्चैवमित्याह । " अनुश्रेणिगतिः " इस सूत्रसे गति इस शब्दकी अनुवृत्ति करके समान अधिकरणपना हो जानेसे गतिकी अपेक्षा एक समया और अविग्रहा शब्दोंका स्त्रीलिंगमें कथन किया गया है। जिस गतिका समय एक ही है इस कारण वह एक समय कही जाती है। इस एक समयमें होनेवाली गतिका विग्रह अर्थात्-आघात यानी कुटिलता नहीं विद्यमान है । इस अविग्रहाका अर्थ यह हुआ कि एक समयमें होनेवाली गति बाणगमनके समान सरल है। कोई पूंछता है कि इस प्रकार गतिका सरलपना कैसे निर्णीत किया जाय ? यों आकांक्षा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी समाधानकारक अग्रिम वार्तिकको कहते हैं। अविग्रहा गतिस्तत्र प्रोक्तैकसमयाखिला । प्राप्तिः समयमात्रेण लोकाग्रस्य तनोरपि ॥ १॥ उन गतियोंमें एक समयवाली सम्पूर्ण गतियां तो कुटिलता रहित हो रही सरल हैं। कारण कि केवल एक समय करके ही लोकके अग्रवर्ती दूसरे शरीरकी भी प्राप्ति हो जाती है। अर्थात् उर्च लोकमें सबसे ऊपर स्थित हो रहे पन्द्रहसौ पिचत्तर बडे घनुष मोटे तनुवातवलयके ऊपरके पन्द्रहसौमें भागमें उसी समय जाकर मुक्तजीव लोकाग्रमें विराज़ जाते हैं। सबसे बडी सिद्धोंकी अवगाहना पांचसौ पच्चीस छोटे धनुषकी है और सबसे छोटी अवगाहना साडे तीन हाथकी है। पन्द्रहसौ पिचत्तर धनुषके उपरिम तनुवातवलयको पांचसौसे गुणा कर देनेपर छोटे धनुष हो जाते हैं। उनमें बडी अवगाहनाका भाग देनेसे पन्द्रह सौ लब्ध आते हैं तथा साडे तीन हाथ यानी सात बटे आठ धनुषकी छोटी अवगाहनाका भाग देनेसे नौ लाख लब्ध आते हैं । तनुवातवलयके पन्द्रहसमे भागमें बडी अवगाहनाके सिद्ध हैं और नौ लाखमें भागमें छोटी अवगाहनाके सिद्ध हैं । मध्यवर्ती अवगाहनाओंके अनेक भेद हैं । मध्ये तिष्ठन्ति मध्यमाः । ___ लोकाग्रप्रापणी गतिर्मुक्तस्य तावदेकसमया समाविर्भूतानंतवीर्यस्य तस्यैकसमयमात्रेण लोकाग्रमाप्त्युपपत्तेः । पूर्वतनुपरित्यागेन तन्वंतरपापणी ऋजुगतिरेकसमयैव संसारिणोपि, संपाप्ततादृग्वीर्यातरायक्षयोपशमस्य लोकांतरवर्तिन्याः तनोरपि समयमात्रेण प्रामिघटनात् । ततः सकलाप्यविग्रहा गतिरेकसमयेत्युपपन्न । सामर्थ्यादेकवका द्विसमया, द्विवका त्रिसमया, त्रिवक्रा चतु:समयेति सिद्धं । ___ मुक्तजीवकी लोकके उपरिम अग्रभागमें प्राप्त करानेवाली गति तो एक समयमें पूरी हो जाती है। क्योंकि वीर्यान्तराय कर्मका क्षय हो जानेसे जिस मुक्त जीवके अनन्तवीर्यगुण भले प्रकार प्रकट
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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