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________________ १९२ तत्वार्थ लोकवार्तिके किन्तु जिन प्रवादियों के यहां लोक चौकोर अथवा गोल भी माना गया होय उनके यहां तो टेढे कौनदार या पैलदार स्वरूप निष्कुटपनेसे सर्वथा रीता यह लोक हुआ । अतः उनके यहां तीन कपना नहीं बनता । एक दो वक्रताओंसे कहीं भी किसी भी स्थानमें जीवकी गति बन जाती है। एक समयमें एक ओर चाहे जितना सीधा चलनेवाले जीवको यदि अपने समतलसे ऊपर नीचे टेडे • स्थानमें जन्म लेना है तो दो मोडे अवश्य लगेंगे। इससे अधिककी आवश्यकता नहीं है। हां, परमागम अनुसार लोकरचना मान लेनेपर निष्कुट क्षेत्रमें गति करना तो तीन मोडा लेकर ही सम्भवता है 1 मा भूदित्ययुक्तं, तथा पाणिमुक्ता लांगलिका गोमूत्रिका चैकद्वित्रिवक्रा संसारिणो गतिरिति सिद्धांतविरोधात् । तदविरुद्धमनुरुध्यमानैः त्रिवक्रा तु गतिरभ्युपगंतव्या, न चासौ निष्कुटत्वविनिर्मुक्ते चतुरस्रे वृत्ते वा लोके संभवतीति न तदुपदेशसंभवः । यदि कोई अतिसाहसी प्रवादी यों कह देवे कि जीवकी गतिमें तीन मोडे भले ही नहीं होवें, हमारी क्या क्षति है । टेढेपनको कमकर जीवमें जितनी सरलता बढे उतना ही अच्छा है। आचार्य कहते हैं कि यों सिद्धांतवाक्यका अतिक्रमण कर भलमानुषी दिखाते हुये प्रशंसा लूटना अनुचित हैं । क्योंकि तिस प्रकार त्रिवऋपने का अभाव मान लेनेपर इस सिद्धान्तग्रन्थसे विरोध हो जायगा कि संसारी जीवकी लम्बे बाहु या हाथ को ऊपर झुका देनेपर तत्सदृश हुई पाणिमुक्ता गति तो एक मोडेवाली है और दो स्थानोंपर टेढे झुक रहे हलके समान आकारवाली लांगलिका गति तो दो वक्रता - वाली हैं तथा चलते हुये बैलके मूत्र समान आकारवाली गोमूत्रिका गति तो तीन वक्रताओंको धारती है, ये सिद्धान्त के वचन अक्षुण्ण हैं । निर्दोष निर्वाध उन सिद्धान्त वचनोंके अविरुद्ध अनुरोध मानकर प्रवत्तनेवाले विद्वानों करके तीन मोडेवाली गति तो अवश्य स्वीकार कर लेनी चाहिये और वह तीन मोडेवाली गति निष्कुटपनसे सर्वथा निर्मुक्त हो रहे चौकोर अथवा गोल लोकमें नहीं सम्भवती है । इस कारण लोकके चौकोरपन या गोलपनका वह उपदेश देना सम्भव नहीं है। 1 कियत्समया पुनरवका गतिरित्याह । गुरुजी महाराज ! अब यह बताओ, फिर नहीं मोडा लेनेवाली गति भला कितने समय में पूरी होती है ? ऐसी शिष्यकी तीव्र आकांक्षा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्रको कहते हैं । एकसमयाविग्रहा ॥ २९ ॥ I गतिवाले जीव पुद्गलोंकी जिस गतिमें मोडा नहीं है वह लोकपर्यन्त भी हो रही गति भ्रमयवाली है । अर्थात् सरलरूप से गमन करने का अवसर मिल जानेपर जीव और पुद्गल एक समयमें असंख्यात योजनोंवाले चौदह राजूतक चले जाते हैं । गतिका उदासीन कारण धर्मद्रव्य यदि लोकके बाहर भी होता तो असंख्याते राजुओंपर्यन्त जा सकते थे । किन्तु परवश हो जाने के कारण चौदह राजूसे अधिक गमन करना निषिद्ध हो जाता है I
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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