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तवार्थचिन्तामणिः
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सूक्ष्मबादरकै वैः सर्वो लोको निरंतरं । निश्चितः सर्वदेत्येतद्वचः कास्तु तथा सति ॥३॥
अनन्तानन्त सूक्ष्मजीव तथा अनंत और असंख्यात लोक प्रमाण बादर जीवोंकरके सर्वदा यह संपूर्ण लोक छिद्रहित ठसाठस भरा हुआ है, यह परम आगम सिद्धान्तोंका वचन है । यदि तिस प्रकार एक या दो मोडेवाली गतियां ही मानी जायंगी तो तैसा होनेपर यह वचन कहां रक्षित रहा । अर्थात्-सूक्ष्म या बादर जीव भला जन्म, मरणसे रहित तो नहीं है । लोकमें किसी भी स्थानसे चाहे किसी भी स्थानपर जन्म ले सकते हैं । लोकमें टेडे, मेडे कोनेवाले अनेक स्थल आगये हैं । अतः वहां तीन मोडेवाली गतिसे ही जन्म लेना सधता है। एक दो मोडेवाली गतिसे वहां वक्रस्थानों में पहुंचना नहीं बन सकता है ।
सूक्ष्मैवैः सर्वलोको निरंतरं निचितः बादरकैश्च यथासंभवमिति परमागमवचनं । तथैकेन जीवेन सर्वलोकः प्रतिपदेशं क्षेत्रीकृत इति वक्रावक्रमलभत । ननु द्विवक्रया गत्या यतो यत्र व्याप्तिः संभवति ततस्तत्र जीवस्योत्पत्तेः सर्वमसमंजसमेतद्वचनमिति चेत्, सर्वस्माल्लोकमदेशात्सर्वस्मिन् लोकप्रदेशांतरे जीवस्य गतिरिति सिद्धान्तव्याहतिप्रसंगात् ।
यह सम्पूर्ण लोक सूक्ष्मजीवों करके खचाखच छेदरहित ठुस रहा है और बादर जीवों करके भी वहां ही यथायोग्य स्थानपर सम्भवते अनुसार भरपूर हो रहा है । यह सर्वज्ञधारासे चले आ रहे ऋषिप्रोक्त परम आगमका वचन है । तथा पंच परावर्तनोंमें क्षेत्रपरिवर्तन करते समय एक जीवने भी प्रत्येक प्रदेशोंका स्पर्श करते हये सम्पूर्ण लोकको अपना जन्म क्षेत्र कर लिया है। इस कारण जीवका गमन वक्रपन और अवक्रपनको प्राप्त हो चुका है । यहां यदि कोई शंका यों करे कि दो मोडेवाली गति करके जहांसे जहां क्षेत्रतक व्यापना सम्भवता है, वहांसे वहांतक जीवकी उत्पत्ति हो जायगी। दो, तीन, बार जन्म लेकर निष्कुट क्षेत्रमें भी उपज जायगा, एक ही जन्ममें निष्कुट क्षेत्रतक पहुंचनेकी क्या आवश्यकता पडी है ? जब कि एक दो मोडेवाली गतिसे ही निर्वाह हो सकता है, तो ये सब परमागमके वचन न्यायोचित नहीं हैं। यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि यों तो " सभी लोकाकाशके प्रदेशोंसे चाहे जहां सभी लोकके अन्य प्रदेशोंमें जन्म लेते हुये जीवकी गति हो जाती है " इस प्रकार सिद्धान्त वचनोंके व्याघात हो जानेका प्रसंग होगा । चाहे जहांसे लोकमें चाहे जहां कहीं भी जन्म हो जाता है, यह सिद्धांत अटूट है।
येषां च चतुरस्रः स्याल्लोको वृत्तोपि वा मतः । निष्कुटत्वविनिर्मुक्तस्तेषां सा न त्रिवक्रता ॥ ४ ॥