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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
चार समयोंसे पहिले पहिले संसारी जीवकी वह गति फिर कुटिलपन करके युक्त मानी गयी है। क्योंकि चौथे समयमें या उससे परले समयोंमें उस कुटिलगतिके होनेका असम्भव है।
त्रिवक्रगतिसंभवः कुत इत्याह । तीन मोडेवाली गतिका सम्भव किस ढंगसे है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्त्तिकको कहते हैं।
निष्कुटक्षेत्रसंसिद्धेस्त्रिवक्रगतिसंभवः ।
एकद्विवक्रया गत्या कचिदुत्पत्त्ययोगतः ॥२॥
बात यह है कि छह पैल आठ कोनवाले वरफीके समान सम्पूर्ण अलोकाकाशके ठीक बीचमें अनादिनिधन लोकका विन्यास यों हो रहा है कि पूर्व, पश्चिम, दिशाकी ओर नीचे सात राजू है क्रमसे घटता हुआ सात राजू ऊपर चढकर एक राजू चौडा रह गया है । पुनः क्रमसे बढता हुआ साडे दस राजू ऊपर चढकर पांच राजू चौडा है, फिर अनुक्रमसे घटता हुआ चौदह राजूकी ऊंचाईपर एक राजू हो गया है । दक्षिण, उत्तरमें, सर्वत्र सात राजू मोटा है। जीव और पुद्गलको गमनमें सहायक हो रहा धर्मद्रव्य तो लोकमें ही व्यापक है । इस कारण अलोकमें कोई भी जीव गमन नहीं कर पाता है । जीवको सीधे जानेमें अलोकाकाश पडे ऐसे निष्कुट क्षेत्रमें, टेढा, मेढा, जन्म लेनेका जब अवसर आ जाता है, तब जीवको तीन मोडा, लग जाते हैं । यह लोक सर्वथा गोल या अण्डाके समान लम्बा गोल अथवा चौकोर, तिकोर, नहीं है । अतः टेढे कोठावर्ती क्षेत्रसे तिरछे कोनवाले क्षेत्रतककी रचनाको धारनेवाले निष्कुट क्षेत्रकी अबाधित जिनागम द्वारा निर्दोषसिद्धि हो जानेसे तीन वक्रतावाली गति हो जानेका सम्भव है । कहीं कहीं टेढमें पड गये उस निष्कुट क्षेत्रमें एक मोडा, या दो मोडावाली गति करके उपजनेका अयोग है। अतः वहां जन्म लेनेवाले जीवको तीन मोडावाली गति करनी पडती है।
यदि टेकवका गतिः स्याद् द्विवव वा तदा वेत्रासनाद्याकारे लोके निष्कुटक्षेत्रे कचिपदेशे जीवस्य कुतश्चिद्देशांतरादागतस्योत्पत्तिने स्यात् ।
___ यदि शंकाकारके विचारानुसार एक मोडावाली अथवा दो मोडावाली ही गति मानी जाय, तब तो अधोलोकमें वेत्रासन ( म्ढा या स्टूल ) और मध्यलोकमें झल्लरी ( बजाये जानेवाली विशेष ढंगकी थाली ) तथा ऊर्ध्व लोकमें मृदंग ( पखवाज या छोटे मुंह बडे पेटवाली ढोलक ) ऐसे आकारवाले लोकमें किसी किसी निष्कुट क्षेत्र बन चुके प्रदेशमें किसी भी देशान्तसे आये हुये जीवकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। अतः तीन मोडेवाली गतिका आश्रय लेना समुचित है।