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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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सूत्रमें पडे हुये च शद्बका अर्थ समुच्चय है। इस कारण च शबसे अकुटिल गति भी पकडी जाती है। तिस कारण संसारीजीवकी कुटिलतांवाली गतिका विधान कर देनेसे अकुटिल गति होनेका अपवाद नहीं हो जाता है । हां, च अव्ययके स्थानमें एव होता तो अकुटिल गतिकी व्यावृत्ति हो जाती, जो कि इष्ट नहीं है । इस प्रकार यहां समीचीन विश्वास कर लेना चाहिये । कालकी मर्यादा करनेके लिये सूत्रमें चार समयसे पहिले ऐसा वचन पढा गया है। कोरे लाघवकी ओर टकटकी लगाकर बैठा हुआ कोई वावदूक आक्षेप करता है कि लाघवगुणके लिये सूत्रकारको आड्का ग्रहण करना चाहिये था । अर्थात्-" प्राक् चतुर्थ्यः ” के स्थानपर “ आचतुर्थ्यः " कह देनेसे परिमाणकृत लाघव है । यदि पतले शरीरवाले चंचल मनुष्यसे कार्य बन सके तो स्थूलकाय पुरुषको दुर्बल टटूपर चढाकर ग्रामान्तरके प्रति भेजना अनुचित है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि आङ् अव्ययके, ईषत्अर्थ, अभिव्याप्ति, मर्यादा, अभिविधि ऐसे कई अर्थ हैं । तेन विना मर्यादा, तत्सहितोऽभिविधिः, उससे रहित मर्यादा होती है और अभिविधि उस विवक्षितसे सहित होती है | आङ् कह देनेसे अभिविधि अर्थ भी लिया जा सकता था । ऐसी दशामें चौथा समय भी वक्रता करनेमें घिर जाता है । यों जीवको पांचवें समयमें आहार करनेका प्रसंग आवेगा, जो कि इष्ट नहीं है । यदि कोई यों कहे कि मर्यादा और अभिविधि इन दोनों अर्थोके सम्भव होनेपर व्याख्यान करनेसे आके अर्थ मर्यादाका ही सम्प्रत्यय हो जायगा । पचासों स्थलोंपर विवादापन्न विषयका व्याख्यान कर देनेसे निर्णय कर लिया जाता है । " व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि संदेहादलक्षणं"। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि यो पहिले संशयापन्न कहना, फिर कटाक्षोंका आघात सहना, उसको दूर करनेके लिये व्याख्यानका मठा बढाना, ऐसा करनेसे प्रतिपत्ति होनेमें व्यर्थ गौरव हो जाता है। अतः प्रतिपत्तिके व्यर्थगौरवसे प्रन्थका गौरव करना कई गुणा श्रेष्ठ है । ऐसा सभी विद्वानोंके यहां कहा भी गया है । तिस कारण झगडेके बीज आङ् प्रयोगकी अपेक्षा प्रशान्तिवर्द्धक प्राक् पदका ग्रहण ही स्पष्टार्थ बना रहो।
कुतश्चतुर्यः समयेभ्यः प्रागेव विग्रहवती गतिः संसारिणो न पुनश्चतुर्थे समये परत्रेत्याशंकायामिदमाह ।
. कोई शिष्य पूंछता है कि चार समयोंसे पहिले ही यानी तीन समयतक संसारी जीवकी गति वक्रतावाली है । क्योंजी ! फिर चौथे समयमें या परले समयोंमें मोडे क्यों नहीं लेती है ? जब कि. नर्तकी या खिलाडी बालक पचासों मोडे लेकर गमन करता है, ऐसी आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिक द्वारा इस समाधानको कहते हैं ।
संसारिणः पुनर्वक्रीभावयुक्ता च सा मता । चतुर्यः समयेभ्यः प्राक परतस्तदसंभवात् ॥ १॥