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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
निमित्त कारण अवशिष्ट नहीं रहा है । अतः अकुटिलको कुटिल होनेका अभाव हो जानेसे मुक्तजीवका गमन बाणके समान कुटिलता रहित है।
___ संसारिणः कीदृशी गतिरित्याह ।
कोई जिज्ञासु कह रहा है कि मुक्तजीवकी गतिका अवधारण किया । हे कृपासिन्धो ! अब यह बताओ कि संसारी जीवकी गति पूर्वभवका आयुष्य पूर्ण हो जानेपर कैसी ? यानी टेडी या घूमती अथवा इतराती चलती कैसी होती है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री उमास्वामी महाराज उत्सरसूत्रको कहते हैं।
विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्यः ॥२८॥
मर कर उत्तरभवसम्बन्धी आयुका उदय आ जानेपर संसारी जीवकी चार समयोंसे पहिले अर्थात्-तीन समयतक कुटिलतावाली भी गति हो जाती है । अर्थात्-जीवको ऊपर, नीचे या तिरछे देशमें ठीक पंक्तिके अनुसार यदि जन्म लेना है तब तो इषुगति है। हां, यदि उससे कुछ नीचा ऊंचा या बगलमें जन्म लेना होगा तो एक मोडा लग जायगा । यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके, अधीन कुछ और भी टेडी विदिशामें जन्म लेना पडे, तो जीवको वहां जानेमें दो मोडे लग जायंगे । हां, ऊर्ध्वलोकमें मृदंग ( पखबाज ) और अधोलोकमें आधे मृदंगके आकारवाले लोकमें जीवको ब्रह्मलोकके निकटवर्ती तिरछे डेढ राजू परली ओरके स्थावर लोकमेंसे यदि नीचे महातमःप्रभाके निकटवर्ती दो राजू परे स्थावरलोकमें कुछ बगलमें चलकर जन्म लेना है, ऐसी दशामें वह जीव ऊर्ध्व लोकसे एक दम सीधा अधोलोकमें नहीं उतर सकता है । क्योंकि मध्यमें अलोकाकाश पडता है। वहां गमनका उदासीनकारण धर्मद्रव्य नहीं है। अतः ऊर्ध्वलोकके स्थावर लोकसे वह जीव तिरछा चलकर पहिले समय ब्रह्मलोकमें आयगा। वहांसे पहिला मोडा लेकर त्रसनालीमें उत्तरता हुआ सातवीं पृथिवीपर आ जायगा । वहांसे दूसरा मोडा लेकर तिरछा चलता हुआ सातवें नरकके पार्श्ववर्ती स्थावरलोकमें आ जायगा । वहांसे तीसरा मोडा लेकर कुछ इधर उधर चारों दिशाओंमें किसी विवक्षित दिशाके स्थानपर चौथे समयमें जन्म लेता हुआ आहार कर लेता है । एक समयमें चौदह राजूतक सीधी छलांग मार सकनेवाले जीवके लिये लोकमें चौथा मोडा लेनेके लिये कोई स्थान शेष नहीं है। अधिकसे अधिक तीन मोडेमें ही जीवकी कहींसे भी किसी भी स्थानतक अव्याघात गति हो जाती है।
च शद्वादविग्रहा चेति समुच्चयः तेन संसारिणो जीवस्य नाविग्रहगतेरपवादो, विग्रहवत्या विधानादिति संपत्ययः कालपरिच्छेदार्थः प्राक् चतुर्थ्यः इति वचनं । आडो ग्रहणं लवर्थ कर्तव्यमिति चेन्न, अभिविधिप्रसंगात् । उभयसंभवे व्याख्यानतो मर्यादासंप्रत्यय इति चेन, प्रतिपत्तौरवात् । प्रतिपत्तिगौरवाद्वरं ग्रंथगौरवं इति वचनाच्च प्राग्ग्रहणमस्तु ।