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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
संहरण अपेक्षा जीवोंकी मोक्ष हो चुकी है । सिद्ध लोक सर्वत्र ठुस रहा है । एकप्रदेश मात्र भी सिद्ध आत्माओंसे खाली नहीं है । प्रत्युत प्रत्येक स्थल या परमात्माओंमें अनन्तानन्त मुक्तजीव निराबाध संप्रविष्ट हो रहे हैं, तब कहीं सिद्धलोक अनादिकालीन अमूर्त सिद्धोंका आश्रय बन चुका है और वर्तमान इन सिद्धोंसे अनन्तानन्त गुणे सिद्धपरमेष्ठी भविष्यकालमे होकर वहां विराजमान होनेवाले हैं। उनमें और आकाशमें अनन्त अवगाह शक्ति है । आकाशके एक प्रदेशपर भी संपूर्ण जीवोंसे अनंतगुणी पुद्गल परमाणुयें बैठ सकती हैं, फिर अमूर्तद्रव्योंका तो कहना ही क्या है।
उत्तरसूत्रे संसारिग्रहणादिह मुक्तस्य गतिः। विग्रहो व्याघातः कौटिल्यमिति यावत्, न विद्यते विग्रहोस्या इत्यविग्रहा मुक्तस्य जीवस्य गतिरित्यभिसंबंधः । कुतः इत्याह ।
उत्तरवर्ती " विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्म्यः '' इस सूत्रमें संसारी जीवोंका ग्रहण हो जानेसे यहां मुक्तजीवकी गति समझी जाती है । विग्रहका अर्थ व्याघात हो जाना है, कुटिलता करना, यह विग्रहका तात्पर्य अर्थ है । जिस गतिमें विग्रह यानी कुटिलता नहीं विद्यमान होय इस प्रकारकी' मुक्त जीवकी गति अविग्रह है, यो आवश्यक पदोंका उपस्कार कर सूत्रका वाक्यार्थ करते हुये पदोंका चारों ओरसे सम्बन्ध करलेना चाहिये । कोई पूछता है कि मुक्तजीवकी गति कुटिलतारहित है, यह कैसे समझा जाय ? इसके लिये ग्रंथकार समाधानवचन कहते हैं ।
गतिर्मुक्तस्य जीवस्याविग्रहा वक्रतां प्रति । निमित्ताभावतस्तस्य स्वभावेनोर्ध्वगत्वतः॥१॥
चौदहमें गुणस्थानके अंत समयमें सम्पूर्ण द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मीका नाश कर उत्तर क्षणमें मुक्त हो रहे जीवकी गति कुटिलतारहित है । कारण कि गतिकी वक्रताके प्रति होनेवाले निमित्तकारणोंका अभाव है । क्योंकि उस मुक्तजीवका स्वभाव करके ही ऊर्ध्व लोक प्रति गमन करनेका परिणाम विद्यमान है। जैसे कि अग्निकी ज्वाला स्वभावसे ही ऊपरको जाती है । हां, सुनार या पाचककी फूंकनी द्वारा प्रेरी गयी वायुका निमित्त पाकर भले ही तिरछी, नींची, लौ चली जाय । इसी प्रकार वक्रताका निमित्त कारण शेष नहीं रहनेसे ऊर्ध्वगतिस्वभाववाले जीवकी मुक्त हो जानेपर कुटिलता रहित ऋजुगति होजाती है।
ऊर्ध्वव्रज्यास्वभावो जीव इति युक्त्यागमाभ्यामुत्तरत्र निर्णेष्यते, ततो मुक्तस्यान्यत्र गमने तद्वक्रीभावे च कारणाभावाद्वक्रीभावाभावादविग्रहा गतिः ।
यह जीवद्रव्य ऊर्च गमन करनके स्वभावको सर्वदा लिये हुये है, इस सिद्धांतका उत्तरवर्ती प्रन्थमें युक्ति और आगमप्रमाण करके निर्णय कर दिया जावेगा । तिस कारण मुक्तजीवका अन्य स्थानोंमें तिरछा, ऊंचा, नीचा, गमन करनेमें और उस गमनके अनुसार वक्रता होनेमें कोई प्रेरक