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________________ १.८६ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके कः पुनरसौ परमागमस्तदावेदकः कुतो वास्य प्रमाणत्वमित्याह । __फिर कौनसा उत्कृष्ट आगम भला उस गतिका निवेदन करनेवाला है ? बताओ और उस आगमको प्रमाणपना कैसे सिद्ध है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर भी विद्यानन्द स्वामी वार्तिकको कहते हैं। षोढा प्रक्रमयुक्तोयमात्मेति वचनं प्रमम् । - संप्रदायात्सुनिर्णीतासंभवद्वाधकत्वतः ॥ ८॥ . यह जीव छह प्रकारके गमन करना स्वरूप प्रक्रमसे युक्त हो रहा है यह वचन प्रमासहित है। क्योंकि सर्वज्ञकी परम्परासे संप्रदाय चला आरहा है और बाधक प्रमाणों के असंभव होनेका भले प्रकार निर्णय कर लिया गया है । अर्थात्-जीवका ऊपरसे नीचे जाना या ऊपरसे ठीक नीचे जाना अथवा पश्चिमसे पूर्व या पूर्वसे पश्चिम एवं दक्षिणसे उत्तर और उत्तरसे दक्षिण ये छह प्रकारके गमनोंको कहनेवाला वचनप्रमाण है । इस सत्य सिद्धांतका कोई बाधक नहीं है । षट्पक्रमयुक्तो जीव इति परमागमः स्वतः संप्रदायाविच्छेदात्प्रमाणं सुनिर्णीतासंभव द्वाधकत्वाद्वा मोक्षमार्गवदिति निरूपितपायं । ततो जीवस्य पुद्गलस्य च देशकालनियमादनश्रेणि गतिः सिद्धा बोद्धव्या। ___छह प्रक्रमोंसे युक्त हो रहा जीव है यह परम आगम ( पक्ष ) स्वतः प्रमाण है ( साध्य ) सर्वज्ञ युक्त सम्प्रदायका विच्छेद नहीं होनेसे ( पहिला हेतु ) अथवा बाधकोंके असम्भवका अच्छा * निर्णय हो चुका होनेसे ( दूसरा हेतु ) सभी आस्तिकोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे अतीन्द्रिय मोक्ष मार्गके समान ( अन्वयदृष्टांत ) इस बातको हम पूर्व प्रकरणोंमें बहुलतासे कह चुके हैं । तिस कारण जीव और पुद्गलकी विशेष देश और विशेष कालका नियम कर देनेसे श्रेणि अनुसार ही गति सिद्ध हो चुकी समझ लेनी चाहिये । मुक्तस्यात्मनः कीदृशी गतिरित्याह ।। त्रिविध कर्मोसे अनन्तकालतकके लिये छूट चुके मुक्त आत्माकी गति कैसी है ? ऐसी जिज्ञास होनेपर श्री उमास्वामी महाराज भविष्य सूत्रको समाधानार्थ उतारते हैं उसको झेलियेगा । . अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ मुक्त जीवोंकी गति कुटिलता कर रहित है अर्थात्-ऊर्ध्व लोकके ठीक बीचमें पैंतालीस लाख योजन लंबा चौडा गोल सिद्ध क्षेत्र है और उतना ही लंबा चौडा मनुष्य क्षेत्र मध्य लोकमें है । मनुष्य लोकमें कहींसे भी मोक्ष होगी उसी समय वह जीव ठीक ऊपर सीधा सिद्धलोक प्रति ममन कर जाता है । कर्मभूमिके तपस्या स्थानोंके अतिरिक्त सभी समुद्र, पर्वत, भोगभूमि, सुमेरु आदि. स्थलोंसे.
SR No.090499
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 5
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1964
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size22 MB
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