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तत्त्वार्थ लोकवार्त
हेतुरीश्वरबोधेन व्यभिचारी च कीर्तितः । तस्यामृर्तत्वनित्यत्वसिद्धेरविभुता भृतः ॥ ५ ॥ अनित्यो भावबोधश्चेन्न स्यात्तस्य प्रमाणता । गृहीतग्रहणान्नो चेत् स्मृत्यादेः शास्त्रबाधिता ॥ ६ ॥
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आचार्य महाराज दूसरी बात कहते हैं कि वैशेषिकद्वारा आत्माके विभुत्वको साधनेमें प्रयुक्त किया गया हेतु तो ईश्वरज्ञान करके व्यभिचार दोषवान् भी प्रसिद्ध हो रहा है । देखिये, वैशेषिकों के यहां दिक्, काल, आत्मा, आकाश, ये चार द्रव्य व्यापक माने गये हैं । इनके गुण तो परम महापरिमाणवाले नहीं हैं । क्योंकि गुणमें पुनः दूसरे गुण नहीं ठहरते हैं, ज्ञान गुणमें परिमाण गुण नहीं वर्तता है “ गुणो गुणानंगीकारात् । " " निर्गुणा गुणाः " । जबकि पृथिवी, जल, तेज, वायु, मन, इन पांच मूर्तद्रव्योंसे भिन्न हो रहा वह ईश्वर ज्ञान अमूर्त है, और नित्य भी सिद्ध है, किन्तु अव्यापकत्वको धारनेवाले उस ज्ञानको व्यापकपना नहीं माना गया है, अतः ईश्वरज्ञानमें हेतुके अविकल ठहर जानेसे और साध्यके नहीं वर्त्तनेसे व्यभिचार दोष हुआ । इस व्यभिचार दोषको हटानेके लिये वैशेषिक यदि ईश्वरज्ञानको अनित्य कहें तब तो गृहीतग्राही होनेसे उस ईश्वराज्ञानको धारवाही ज्ञान के समान प्रमाणता नहीं हो पायगी । पहिले ज्ञानने जिन पदार्थोंको विषय किया था दूसरे ज्ञानने भी भी नवीन उपज कर उन्हीं पदार्थोंको जाना, यह गृहीतों का ही ग्रहण हुआ। हां, ईश्वर ज्ञानको नित्य, एक, मान लेनेपर तो गृहीतको ही पुनः दूसरे ज्ञानसे भी ग्रहण करना यह प्रसंग उठानेका अवसर ही नहीं आता है | यदि तुम वैशेषिक गृहीतग्राही होनेपर भी ईश्वरज्ञानकी अप्रमाणता नहीं मानोगे तब तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, धारावाहि ज्ञान आदिको भी प्रमाणता आ टपकेगी, जोकि तुम्हारे शास्त्रोंसे बाधित है, साथमें आत्माका व्यापकपना तो सर्वांगीण निर्दोष उन धर्मी ग्राहक प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे बाधित हो हैं। । यह समझे रहो ।
रहा
गतिमानात्मा क्रियाहेतुगुणसंबंधाल्लोष्ठवत् । क्रियाहेतुगुणसंबंध स्त्यात्मनि कार्य तत्कृत - क्रियोपलंभात् । यत्र यत्कृतक्रियोपलंभः तत्र क्रियाहेतुगुणसंबंधोस्ति यथा वनस्पतौ वायुकृतक्रि योपलंभाद्वायौ तथा चात्मकृतक्रियोपलंभः काये तस्मादात्मनि क्रियाहेतुगुणसंबंधास्ति इति निश्चीयते । कः पुनरसावात्मनि क्रियाहेतुगुणः ? प्रयत्नादिः । प्रयत्नवता ह्यात्मना बुद्धिपूर्विका क्रिया काये क्रियते, अबुद्धिपूर्विका तु धर्माधर्मवतान्यथा तदयोगात् ।
- आत्मा ( पक्ष ) गमन करना रूप क्रियावाला है ( साध्य ) क्रियाके हेतु हो रहे गुणोंका सम्बन्ध रखनेवाला होनेसे ( हेतु ) डेल या गोलीके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । पुनः आचार्य हेतु दलको साधते हैं कि आत्मामें ( पक्ष ) क्रिया के हेतुभूत गुणोंका सम्बन्ध हो रहा है ( साध्य )